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विषम समस्या.../ मुंशी प्रेमचंद

विषम समस्या मेरे दफ्तर में चार चपरासी हैं। उनमें एक का नाम गरीब है। वह बहुत ही सीधा, बड़ा आज्ञाकारी, अपने काम में चौकस रहने वाला...


विषम समस्या

मेरे दफ्तर में चार चपरासी हैं। उनमें एक का नाम गरीब है। वह बहुत ही सीधा, बड़ा आज्ञाकारी, अपने काम में चौकस रहने वाला, घुड़कियाँ खाकर चुप रह जानेवाला यथा नाम तथा गुण वाला मनुष्य है।मुझे इस दफ्तर में साल-भर होते हैं, मगर मैंने उसे एक दिन के लिए भी गैरहाजिर नहीं पाया। मैं उसे 9 बजे दफ्तर में अपनी फटी दरी पर बैठे हुए देखने का ऐसा आदी हो गया हूँ कि मानो वह भी उसी इमारत का कोई अंग है। इतना सरल है कि किसी की बात टालना नहीं जाना। एक मुसलमान है। उससे सारा दफ्तर डरता है, मालूम नहीं क्यों ? मुझे तो इसका कारण सिवाय उसकी बड़ी-बड़ी बातों के और कुछ नहीं मालूम होता। उसके कथनानुसार उसके चचेरे भाई रामपुर रियासत में काजी हैं, फूफा टोंक की रियासत में कोतवाल हैं। उसे सर्वसम्मति ने ‘काजी-साहेब’ की उपाधि दे रखी है। शेष दो महाशय जाति के ब्राह्मण हैं। उनके आशीर्वादों का मूल्य उनके काम से कहीं अधिक है। ये तीनों कामचोर, गुस्ताख और आलसी हैं। कोई छोटा-सा काम करने को भी कहिए तो बिना नाक-भौं सिकोड़े नहीं करते। क्लर्कों को तो कुछ समझते ही नहीं ! केवल बड़े बाबू से कुछ दबते हैं, यद्यपि कभी-कभी उनसे झगड़ बैठते हैं। मगर इन सब दुर्गुणों के होते हुए भी दफ्तर में किसी की मिट्टी इतनी खराब नही है, जितनी बेचारे गरीब की। तरक्की का अवसर आया है, तो ये तीनों मार ले जाते हैं, गरीब को कोई पूछता भी नहीं। और सब दस-दस पाते हैं, वह अभी छ: ही में पड़ा हुआ है। सुबह से शाम तक उसके पैर एक क्षण के लिए भी नहीं टिकते—यहाँ तक कि तीनों चपरासी उस पर हुकूमत जताते हैं और ऊपर की आमदनी में तो उस बेचारे का कोई भाग ही नहीं। तिस पर भी दफ्तर के सब कर्मचारी—दफ्तरी से लेकर बाबू तक सब—उससे चिढ़ते हैं। उसकी कितनी ही बार शिकायतें हो चुकी हैं, कितनी ही बार जुर्माना हो चुका है और डाँट-डपट तो नित्य ही हुआ करती है। इसका रहस्य कुछ मेरी समझ में न आता था। हाँ, मुझे उस पर दया अवश्य आती थी, और आपने व्यवहार से मैं यह दिखाना चाहता था कि मेरी दृष्टि में उसका आदर चपरासियों से कम नहीं। यहाँ तक कि कई बार मैं उसके पीछे अन्य कर्मचारियों से लड़ भी चुका हूँ।

2

एक दिन बड़े बाबू ने गरीब से अपनी मेज साफ करने को कहा। वह तुरन्त मेज साफ करने लगा। दैवयोग से झाड़न का झटका लगा, तो दावात उलट गयी और रोशनाई मेज पर फैल गयी। बड़े बाबू यह देखते ही जामे से बाहर हो गये। उसके कान पकड़कर खूब ऐंठे और भारतवर्ष की सभी प्रचलित भाषाओं से दुर्वचन चुन-चुनकर उसे सुनाने लगे। बेचारा गरीब आँखों में आँसू भरे चुपचाप मूर्तिवत् खड़ा सुनता था, मानो उसने कोई हत्या कर डाली हो। मुझे बाबू का जरा-सी बात पर इतना भयंकर रौद्र रूप धारण करना बुरा मालूम हुआ। यदि किसी दूसरे चपरासी ने इससे भी बड़ा कोई अपराध किया होता, तो भी उस पर इतना वज्र-प्रहार न होता। मैंने अंग्रेजी में कहा—बाबू साहब, आप यह अन्याय कर रहे हैं। उसने जान-बूझकर तो रोशनाई गिराया नहीं। इसका इतना कड़ा दण्ड अनौचित्य की पराकाष्ठा है।

बाबूजी ने नम्रता से कहा—आप इसे जानते नहीं, बड़ा दुष्ट है।

‘मैं तो उसकी कोई दुष्टता नहीं देखता।’

‘आप अभी उसे जानते नहीं, एक ही पाजी है। इसके घर दो हलों की खेती होती है, हजारों का लेन-देन करता है; कई भैंसे लगती हैं। इन्हीं बातों का इसे घमण्ड है।’

‘घर की ऐसी दशा होती, तो आपके यहाँ चपरासगिरी क्यों करता?’

‘विश्वास मानिए, बड़ा पोढ़ा आदमी है और बला का मक्खीचूस।’

‘यदि ऐसा ही हो, तो भी कोई अपराध नहीं है।’

‘अजी, अभी आप इन बातों को नहीं जानते। कुछ दिन और रहिए तो आपको स्वयं मालूम हो जाएगा कि यह कितना कमीना आदमी है?’

एक दूसरे महाशय बोल उठे—भाई साहब, इसके घर मनों दूध-दही होता है, मनों मटर, जुवार, चने होते हैं, लेकिन इसकी कभी इतनी हिम्मत न हुई कि कभी थोड़ा-सा दफ्तरवालों को भी दे दो। यहाँ इन चीजों को तरसकर रह जाते हैं। तो फिर क्यों न जी जले ? और यह सब कुछ इसी नौकरी के बदौलत हुआ है। नहीं तो पहले इसके घर में भूनी भाँग न थी।

बड़े बाबू कुछ सकुचाकर बोले—यह कोई बात नहीं। उसकी चीज है, किसी को दे या न दे; लेकिन यह बिल्कुल पशु है।

मैं कुछ-कुछ मर्म समझ गया। बोला—यदि ऐसे तुच्छ हृदय का आदमी है, तो वास्तव में पशु ही है। मैं यह न जानता था।

अब बड़े बाबू भी खुले। संकोच दूर हुआ। बोले—इन सौगातों से किसी का उबार तो होता नहीं, केवल देने वाले की सहृदयता प्रकट होती है। और आशा भी उसी से की जाती है, जो इस योग्य होता है। जिसमें सामर्थ्य ही नहीं, उससे कोई आशा नहीं करता। नंगे से कोई क्या लेगा ?

रहस्य खुल गया। बड़े बाबू ने सरल भाव से सारी अवस्था दरशा दी थी। समृद्धि के शत्रु सब होते हैं, छोटे ही नहीं, बड़े भी। हमारी ससुराल या ननिहाल दरिद्र हो, तो हम उससे आशा नहीं रखते ! कदाचित् वह हमें विस्मृत हो जाती है। किन्तु वे सामर्थ्यवान् होकर हमें न पूछें, हमारे यहाँ तीज और चौथ न भेजें, तो हमारे कलेजे पर साँप लोटने लगता है। हम अपने निर्धन मित्र के पास जायँ, तो उसके एक बीड़े पान से ही संतुष्ट हो जाते हैं; पर ऐसा कौन मनुष्य है, जो अपने किसी धनी मित्र के घर से बिना जलपान के लौटाकर उसे मन में कोसने न लगे और सदा के लिए उसका तिरस्कार न करने लगे। सुदामा कृष्ण के घर से यदि निराश लौटते तो, कदाचित् वह उनके शिशुपाल और जरासंध से भी बड़े शत्रु होते। यह मानव-स्वभाव है।

3

कई दिन पीछे मैंने गरीब से पूछा—क्यों जी, तुम्हारे घर पर कुछ खेती-बारी होती है ?

गरीब ने दीन भाव से कहा—हाँ, सरकार, होती है। आपके दो गुलाम हैं, वही करते हैं ?

‘गायें-भैंसें भी लगती हैं?’

‘हाँ, हुजूर; दो भैंसें लगती हैं, मुदा गायें अभी गाभिन नहीं है। हुजूर, लोगों के ही दया-धरम से पेट की रोटियाँ चल जाती हैं।’

‘दफ्तर के बाबू लोगों की भी कभी कुछ खातिर करते हो?’

गरीब ने अत्यन्त दीनता से कहा—हुजूर; मैं सरकार लोगों की क्या खातिर कर सकता हूँ। खेती में जौ, चना, मक्का, जुवार के सिवाय और क्या होता है। आप लोग राजा हैं, यह मोटी-झोटी चीजें किस मुँह से आपकी भेंट करूँ। जी डरता है, कहीं कोई डाँट न बैठे कि इस टके के आदमी की इतनी मजाल। इसी के मारे बाबूजी, हियाव नहीं पड़ता। नहीं तो दूध-दही की कौन बिसात थी। मुँह लायक बीड़ा तो होना चाहिए।

‘भला एक दिन कुछ लाके दो तो, देखो, लोग क्या कहते हैं। शहर में यह चीजें कहाँ मयस्सर होती हैं। इन लोगों का जी कभी-कभी मोटी-झोटी चीजों पर चला करता है।’

‘जो सरकार, कोई कुछ कहे तो? कहीं कोई साहब से शिकायत कर दे तो मैं कहीं का न रहूँ।’

‘इसका मेरा जिम्मा है, तुम्हें कोई कुछ न कहेगा। कोई कुछ कहेगा, तो मैं समझा दूँगा।’

‘तो हुजूर, आजकल तो मटर की फसिल है। चने के साग भी हो गये हैं और कोल्हू भी खड़ा हो गया है। इसके सिवाय तो और कुछ नहीं है।’

‘बस, तो यही चीजें लाओ।’

‘कुछ उल्टी-सीधी पड़े, तो हुजूर ही सँभालेंगे!’

‘हाँ जी, कह तो दिया कि मैं देख लूँगा।’

दूसरे दिन गरीब आया तो उसके साथ तीन हृष्ट-पुष्ट युवक भी थे। दो के सिरों पर टोकरियाँ थीं, उसमें मटर की फनियाँ भरी हुई थीं। एक के सिर पर मटका था, उसमें ऊख का रस था। तीनों ऊख का एक-एक गट्ठर काँख में दबाये हुए थे। गरीब आकर चुपके से बरामदे के सामने पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। दफ्तर में आने का उसे साहस नहीं होता था, मानो कोई अपराधी वृक्ष के नीचे खड़ा था कि इतने में दफ्तर के चपरासियों और अन्य कर्मचारियों ने उसे घेर लिया। कोई ऊख लेकर चूसने लगा, कई आदमी टाकरें पर टूट पड़े, लूट मच गयी। इतने में बड़े बाबू दफ्तर में आ पहुँचे। यह कौतुकब देखा तो उच्च स्वर से बोले—यह क्या भीड़ लगा रखी है, अपना-अपना काम देखो।

मैंने जाकर उनके कान में कहा—गरीब, अपने घर से यह सौगात लाया है। कुछ आप ले लीजिए, कुछ इन लोगों को बाँट दीजिए।

बड़े बाबू ने कृत्रिम क्रोध धारण करके कहा—क्यों गरीब, तुम ये चीजें यहाँ क्यों लाये ? अभी ले जाओ, नहीं तो मैं साहब से रपट कर दूँगा। कोई हम लोगों को मलूका समझ लिया है।

गरीब का रंग उड़ गया। थर-थर काँपने लगा। मुँह से एक शब्द भी न निकला। मेरी ओर अपराधी नेत्रों से ताकने लगा।

मैंने उसकी ओर से क्षमा-प्रार्थना की। बहुत कहने-सुनने पर बाबू साहब राजी हुए। सब चीजों में से आधी-आधी अपने घर भिजवायी। आधी में अन्य लोगों के हिस्से लगाये गये। इस प्रकार यह अभिनय समाप्त हुआ।

4

अब दफ्तर में गरीब का नाम होने लगा। उसे नित्य घुड़कियाँ न मिलतीं; दिन-भर दौड़ना न पड़ता। कर्मचारियों के व्यंग्य और अपने सहयोगियों के कटुवाक्य न सुनने पड़ते। चपरासी लोग स्वयं उसका काम कर देते। उसके नाम में भी थोड़ा-सा परिवर्तन हुआ। वह गरीब से गरीबदास बना। स्वभाव में कुछ तबदीली पैदा हुई। दीनता की जगह आत्मगौरव का उद्भव हुआ। तत्परता की जगह आलस्य ने ली। वह अब भी कभी देर करके दफ्तर आता, कभी-कभी बीमारी का बहाना करके घर बैठ रहता। उसके सभी अपराध अब क्षम्य थे। उसे अपनी प्रतिष्ठा का गुर हाथ लग गया था। वह अब दसवें-पाँचवे दिन दूध, दही लाकर बड़े बाबू की भेंट किया करता। देवता को संतुष्ट करना सीख गया। सरलता के बदले अब उसमें काँइयाँपन आ गया।
एक रोज बड़े बाबू ने उसे सरकारी फार्मों का पार्सल छुड़ाने के लिए स्टेशन भेजा। कई बड़े-बड़े पुलिंदे थे। ठेले पर आये। गरीब ने ठेलेवालों से बारह आने मजदूरी तय की थी। जब कागज दफ्तर में गये तो उसने बड़े बाबू से बारह आने पैसे ठेलेवालों को देने के लिए वसूल किये। लेकिन दफ्तर से कुछ दूर जाकर उसकी नीयत बदली। अपनी दस्तूरी माँगने लगा। ठेलेवाले राजी न हुए। इस पर गरीब ने बिगड़कर सब पैसे जेब में रख लिये और धमकाकर बोला—अब एक फूटी कौड़ी भी न दूँगा। जाओ जहाँ फरियाद करो। देखें, क्या बना लेते हो।

ठेलेवाले ने जब देखा कि भेंट न देने से जमा ही गायब हुई जाती है तो रो-धोकर चार आने पैसे देने पर राजी हुए। गरीब ने अठन्नी उसके हवाले की, बारह आने की रसीद लिखाकर उसके अँगूठे के निशान लगवाये और रसीद दफ्तर में दाखिल हो गयी।

यह कुतूहल देखकर में दंग रह गया। यह वही गरीब है, जो कई महीने पहले सरलता और दीनता की मूर्ति था, जिजसे कभी चपरासियों से भी अपने हिस्से की रकम माँगने का साहस न होता था, जो दूसरों को खिलाना भी न जानता था, खाने का तो जिक्र ही क्या। यह स्वभावांतर देखकर अत्यन्त खेद हुआ। इसका उत्तरदायित्व किसके सिर था ? मेरे सिर, जिसने उसे चघ्घड़पन और धूर्तता का पहला पाठ पढ़ाया था। मेरे चित्त में प्रश्न उठा—इस काँइयाँपन से, जो दूसरों का गला दबाता है, वह भोलापन क्या बुरा था, जो दूसरों का अन्याय सह लेता था। वह अशुभ मुहूर्त था, जब मैंने उसे प्रतिष्ठा-प्राप्ति का मार्ग दिखाया, क्योंकि वास्तव में वह उसके पतन का भयंकर मार्ग था। मैंने बाह्य प्रतिष्ठा पर उसकी आत्म-प्रतिष्ठा का बलिदान कर दिया।


लेखक : मुंशी प्रेमचंद

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नाम

अज्ञेय,14,अनाथ लड़की,1,अनुपमा का प्रेम,1,अनुभव,1,अनुराधा,1,अनुरोध,1,अपना गान,1,अपनी करनी,1,अभागी का स्वर्ग,1,अमृत,1,अमृता प्रीतम,8,अलग्योझा,1,अविनाश ब्यौहार,4,अशआर,1,अश्वघोष,6,आख़िरी तोहफ़ा,1,आखिरी मंजिल,1,आत्म-संगीत,1,आर्यन मिश्र,2,इज्ज़त का ख़ून,1,उद्धार,1,उपन्यास,48,कफ़न,1,कबीरदास,2,कबीरदास जी के दोहे,3,कर्मों का फल,1,कवच,1,कविता,60,कविता कैसे लिखते है,1,कविता लिखने के नियम,1,कहानी,130,क़ातिल,1,कुंडलिया छंद,6,क्योंकर मुझे भुलाओगे,1,क्रान्ति-पथे,1,ग़ज़ल,108,ग़ज़ल की 32 बहर,3,गजलें,1,ग़रीब की हाय,1,गिरधर कविराय,5,गिरधर की कुंडलिया,4,गिरधर की कुंडलिया छंद,1,गीत,9,गीतिका,1,गुस्ताख हिन्दुस्तानी,8,गोपालदास "नीरज",14,गोपासदास "नीरज",1,गोस्वामी तुलसीदास,1,गोस्वामी तुलसीदास जी,1,गोस्वामी तुलसीदास जी के दोहे,2,घमण्ड का पुतला,1,घर जमाई,1,घासवाली,1,चंदबरदाई,3,छंद,25,छंद के नियम,1,छंद क्या है,1,छंदमुक्त कविता कैसे लिखें,1,जयशंकर प्रसाद,4,जानभी चौधुरी,2,जीतेन्द्र मीना 'गुरदह',2,जॉन एलिया,16,जौन एलिया,1,ज्वालामुखी,1,ठाकुर का कुआँ,1,डॉ. शिवम् तिवारी,1,डॉ.सिराज,1,तुम और मैं,1,तुलसीदास जी के दोहे,1,तोमर छंद,1,तोमर छंद के नियम,1,तोमर छंद कैसे लिखते है,1,त्रिया-चरित्र,1,दण्ड,1,दिल की रानी,1,दिलीप वर्मा'मीर',1,दीपावली का एक दीप,1,दुर्गा का मन्दिर,1,दुष्यंत कुमार,12,दूसरी शादी,1,देवधर की स्मृतियाँ,1,देवी- एक लघु कथा,1,दैनिक साहित्य,4,दो बैलों की कथा,1,दो सखियाँ,1,दोहा,12,दोहा छंद,6,दोहा छन्द,1,दोहा छन्द की परिभाषा,1,दोहा छन्द की पहचान?,1,नज़्म,7,नमक का दारोगा,1,नवगीत,1,नहीं तेरे चरणों में,1,नाग-पूजा,1,निदा फ़ाज़ली,26,निधि छंद के नियम,1,निधि छंद कैसे लिखते है,1,निमन्त्रण,1,निर्मला,21,निर्वासन,1,नैराश्य लीला,1,पंच परमेश्वर,1,पराजय-गान,1,परिणीता,1,पर्वत यात्रा,1,पहले भी मैं इसी राह से जा कर फिर,1,पुस्तक लोकार्पण,2,पूस की रात,1,प्रतापचन्द और कमलाचरण,1,प्रतीक मिश्रा "निरन्तर",1,प्रस्थान,1,प्रातः कुमुदिनी,1,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,15,बड़े घर की बेटी,1,बत्ती और शिखा,1,बन्द दरवाजा,1,बलिदान,1,बशीर बद्र,1,बहर क्या है?,1,बालकों का चोर,1,बाल्य-स्मृति,1,बूढ़ी काकी,1,भग्नदूत,4,मंझली दीदी,1,मंत्र,1,मनोरम छंद,1,मनोरम छंद कैसे लिखते है?मनोरम छंद क्वे नियम,1,मनोरमगा छंद के नियम,1,मनोरमगा छंद कैसे लिखते है?,1,मन्दिर,1,महातीर्थ,1,महादेवी वर्मा,5,मात्रा गणना कैसे करते है,1,मात्रिक अर्द्धसम छन्द,1,मात्रिक छंद के प्रकार,1,मात्रिक छंद क्या है,1,मिर्ज़ा ग़ालिब,1,मिलाप,1,मिस पद्मा,1,मीनू पंत त्रिपाठी,2,मुंशी प्रेमचंद,126,मुक्तक के नियम?,1,मुक्तक कैसे लिखते है?,1,मुक्तक क्या है?,1,मुहम्मद आसिफ अली,1,मैकू,1,मोटर के छींटे,1,यह मेरी मातृभूमि है,1,रसखान,2,रहस्य,1,राज किशोर मिश्र,1,राजहठ,1,राधिका छंद के नियम,1,राधिका छंद कैसे लिखते है,1,राम जी तिवारी"राम",1,राहत इंदौरी,21,लैला,1,वासना की कडियॉँ,1,विजय,1,विलासी,1,विष्णुपद छंद,1,विष्णुपद छंद कैसे लिखते है?,1,वेदी तेरी पर माँ,1,वैधविक,3,शंखनाद,1,शरतचंद्र चट्टोपाध्याय,32,शराब की दुकान,1,शायरी,2,शास्त्र छंद कैसे लिखते है,1,शास्त्र छंद.शास्त्र छंद के नियम,1,श्रीकान्त,20,श्रृंगार छंद के नियम,1,श्रृंगार छंद कैसे लिखते है?,1,संजय चतुर्वेदी,6,संत कबीरदास,1,संस्मरण,1,सच्चाई का उपहार,1,सती,1,सनातन,1,समर यात्रा,1,सम्भाव्य,1,सरिता कुमारी ‘क़लम’,1,सवैया छंद,2,सागर त्रिपाठी,1,सारी दुनिया के लिए,1,सार्द्धसरस छंद के नियम,1,सार्द्धसरस छंद कैसे लिखते है?,1,साहित्य अकादमी,4,साहित्य ज्ञान,22,साहित्यिक खबरें,5,सुभद्रा कुमारी चौहान,6,सुलक्षण छंद,1,सुलक्षण छंद के नियम,1,सुलक्षण छंद कैसे लिखते है?,1,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,4,सैलानी बन्दर,1,सोहाग का शव,1,सौत,1,स्वर्ग की देवी,1,हम क्या शीश नवाएँ,1,हम लड़कियां है,1,हरिचरण,1,हस्तीमल "हस्ती",1,हस्तीमल हस्ती के दोहे,1,होली की छुट्टी,1,होशियार सिंह ‘शंबर’,1,होशियार सिंह ‘शंबर’ के दोहे,1,Ghazal Ki Matra Aur Bahar,1,Hindi Me Kavita Kaise Likhe,1,How to Write Hindi Poem,1,Kavita Likhna Seekhe,1,manoram chhand,1,Radhika Chhand Kaise Likhte Hai,1,Vishnupad Chhand Kaise Likhate Hai,1,
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दैनिक साहित्य पत्रिका: विषम समस्या.../ मुंशी प्रेमचंद
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