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निर्मला-उपन्यास (अध्याय सोलह) / मुंशी प्रेमचंद

  अध्याय पन्द्रह   से आगे... निर्मला-उपन्यास (अध्याय सोलह) महीना कटते देर न लगी। विवाह का शुभ मुहूर्त आ पहुंचां मेहमानों से घार भार गया। मंश...

 



निर्मला-उपन्यास (अध्याय सोलह)


महीना कटते देर न लगी। विवाह का शुभ मुहूर्त आ पहुंचां मेहमानों से घार भार गया। मंशी तोताराम एक दिन पहले आ गये और उसनके साथ निर्मला की सहेली भी आई। निर्मला ने बहुत आग्रह न किया था, वह खुद आने को उत्सुक थी। निर्मला की सबसे बड़ी उत्कंठा यही थी कि वर के बड़े भाई के दर्शन करुंगी और हो सकता तो उसकी सुबुद्वि पर धन्यवाद दूंगी।
सुधा ने हंस कर कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?
निर्मला- क्यों, बोलने में क्या हानि है? अब तो दूसरा ही सम्बन्ध हो गया और मैं न बोल सकूंगी, तो तुम तो हो ही।
सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा। मैं पराये मर्द से नहीं बोल सकती। न जाने कैसे आदमी हों।
निर्मला-आदमी तो बुरे नहीं है, और फिर उनसे कुछ विवाह तो करना नहीं, जरा-सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहां होते, तो मैं तुम्हें आज्ञा दिला देती।
सुधा-जो लोग हुदय के उदार होते हैं, क्या चरित्र के भी अच्छे होते है? पराई स्त्री की घूरने में तो किसी मर्द को संकोच नहीं होता।
निर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूंगी, घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा, बस, अब तो राजी हुई।
इतने में कृष्णा आकर बैठ गई। निर्मला ने मुस्कराकर कहा-सच बता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?
कृष्णा-जीजाजी बुला रहे हैं, पहले जाकर सुना आआ, पीछे गप्पें लड़ाना बहुत बिगड़ रहे हैं।
निर्मला- क्या है, तून कुछ पूछा नहीं?
कृष्णा- कुछ बीमार से मालूम होते हैं। बहुत दुबले हो गए हैं।
निर्मला- तो जरा बैठकर उनका मन बहला देती। यहां दौड़ी क्यों चली आई? यह कहो, ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुषा तुझे भी मिलता। जरा बैठकर बातें करो। बुड्ढे बातें बड़ी लच्छेदार करते हैं। जवान इतने डींगियल नहीं होते।
कृष्णा- नहीं बहिन, तुम जाओ, मुझसे तो वहां बैठा नहीं जाता।
निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा- अब तो बारात आ गई होगी। द्वार-पूजा क्यों नही होती?
कृष्णा- क्या जाने बहिन, शास्त्रीजी सामान इकट्ठा कर रहे हैं?
सुधा- सुना है, दूल्हा का भावज बड़े कड़े स्वाभाव की स्त्री है।
कृष्णा- कैसे मालूम?
सुधा- मैंने सुना है, इसीलिए चेताये देती हूं। चार बातें गम खाकर रहना होगा।
कृष्णा- मेरी झगड़ने की आदत नहीं। जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पायेंगी तो क्या अनायास ही बिगड़ेगी!
सुधा- हां, सुना तो ऐसा ही है। झूठ-मूठ लड़ा कारती है।
कृष्णा- मैं तो सौबात की एक बात जानती हूं, नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है।
सहसा शोर मचा- बारात आ रही है। दोनों रमणियां खिड़की के सामने आ बैठीं। एक क्षण में निर्मला भी आ पहुंची।
वर के बड़े भाई को देखने की उसे बड़ी उत्सुकता हो रही थी।
सुधा ने कहा- कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?
निर्मला- शास्त्रीजी से पूछूं, तो मालूम हो। हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं। अच्छा डॉक्टर साहब यहां कैसे आ पहुंचे! वह घोड़े पर क्या
हैं, देखती नहीं हो?
सुधा- हां, हैं तो वही।
निर्मला- उन लोगों से मित्रता होगी। कोई सम्बन्ध तो नहीं है।
सुधा- अब भेंट हो तो पूछूं, मुझे तो कुछ नहीं मालूम।
निर्मला- पालकी मे जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नहीं दीखते।
सुधा- बिलकुल नहीं। मालूम होता है, सारी देहे मे पेछ-ही-पेट है।
निर्मला- दूसरे हाथी पर कौन बैठा है, समझ में नही आता।
सुधा- कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता। उसकी उम्र नहीं देखती हो, चालीस के ऊपर होंगी।
निर्मला- शास्त्रजी तो इस वक्त द्वार-पूजा कि फिक्र में हैं, नहीं तोा उनसे पूछती।
संयोग से नाई आ गया। सन्दूकों की कुंलियां निर्मला के पास थीं। इस वक्त द्वारचार के लिए कुछ रुपये की जरुरत थी, माता ने भेजा था, यह नाई भी पण्डित मोटेराम जी के साथ तिलक लेकर गया था।
निर्मला ने कहा- क्या अभी रुपये चाहिए?
नाई- हां बहिनजी, चलकर दे दीजिए।
निर्मला- अच्छा चलती हूं। पहले यह बता, तू दूल्हा क बड़े भाई को पहचानता है?
नाई- पहचानता काहे नहीं, वह क्या सामने हैं।
निर्मला- कहां, मैं तो नहीं देखती?
नाई- अरे वह क्या घोड़े पर सवार हैं। वही तो हैं।
निर्मला ने चकित होकर कहा- क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई हैं! पहचानता है या अटकल से कह रहा है?
नाई- अरे बहिनजी, क्या इतना भूल जाऊंगा अभी तो जलपान का सामान दिये चला आता हूं।
निर्मल- अरे, यह तो डॉक्टर साहब हैं। मेरे पड़ोस में रहते हैं।
नाई- हां-हां, वही तो डॉक्टर साहब है।
निर्मला ने सुधा की ओर देखकर कहा- सुनती ही बहिन, इसकी बातें? सुधा ने हंसी रोककर कहा-झूठ बोलता है।
नाई- अच्छा साहब, झूठ ही सही, अब बड़ों के मुंह कौन लगे! अभी शास्त्रीजी से पूछवा दूंगा, तब तो मानिएगा?
नाई के आने में देर हुई, मोटेराम खुद आंगन में आकर शोर मचाने लगे-इस घर की मर्यादा रखना ईश्वर ही के हाथ है। नाई घण्टे भर से आया हुआ है, और अभी तक रुपये नहीं मिले।
निर्मला- जरा यहां चले आइएगा शास्त्रीजी, कितने रुपये दरकरार हैं, निकाल दूं?
शास्त्रीजी भुनभुनाते और जोर-जारे से हांफते हुए ऊपर आये और एक लम्बी सांस लेकर बोले-क्या है? यह बातों का समय नहीं है, जल्दी से रुपये निकाल दो।
निर्मला- लीजिए, निकाल तो रहीं हूं। अब क्या मुंह के बल गिर पडूं? पहले यह बताइए कि दूलहा के बड़े भाई कौन हैं?
शास्त्रीजी- रामे-राम, इतनी-सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया। नाई क्या न पहचानता था?
निर्मला- नाई तो कहता है कि वह जो घोड़े पर सवार है, वही हैं।
शास्त्रीजी- तो फिर किसे बता दे? वही तो हैं ही।
नाई- घड़ी भर से कह रहा हूं, पर बहिनजी मानती ही नहीं।
निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा- अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र खेर रही थी! मैं जानती, तो तुम्हें यहां बुलाती ही नहीं। ओफ्फोह! बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा! तुम महीनों से मेरे साथ शरारत करती चली आती हो, और कभी भूल से भी इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुंह से नहीं निकला। मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती।
सुधा- तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहां आती ही क्यों?
निर्मला- गजब-रे-गजब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूं। तुम्हारो ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा। देखा कृष्णा, तूने अपनी जेठानी की शरारत! यह ऐसी मायाविनी है, इनसे डरती रहना।
कृष्णा- मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढाऊंगी। धन्य-भाग कि इनके दर्शन हुए।
निर्मला- अब समझ गई। रुपये भी तुम्हें न भिजवाये होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूं, मार बैठूंगी।
सुधा- अपने घर बुलाकर के मेहमान का अपमान नहीं किया जाता। निर्मला- देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरे लेती हूं। मैंने तुम्हारा मान रखने को जरा-सा लिख दिया था और तुम सचमुच आ पहुंची। भला वहां वाले क्या कहते होंगे?
सुधा- सबसे कहकर आई हूं।
निर्मला- अब तुम्हारे पास कभी न आऊंगी। इतना तो इशारा कर देतीं कि डॉक्टर साहब से पर्दा रखना।
सुधा- उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई? न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़कर कैसी चीज खो दी? अब तो तुम्हें देखकर लालाजी हाथ मलकर रह जाते हैं। मुंह से तो कुछ नहीं सकहते, पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।
निर्मला- अब तुम्हारे घर कभी न आऊंगी।
सुधा- अब पिण्ड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नीं देखी है।
द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठ जलपान कर रहे थे। मुंशीजी की बेगल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें देखा और कलेजा थामकर रह गई। एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, पर दूसरा...इस विषय में कुछ न कहना ही दचित है।
निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था, पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार यह जी चाहता था कि बुलाकर खूब फटकारुं, ऐसे-ऐसे ताने मारुं कि वह भी याद करें, रुला-रुलाकर छोडूं, मेगर रहम करके रह जाती थी। बारात जनवासे चली गई थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी। सहसा महरी ने आकर कहा- बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही है। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।
निर्मला ने थाल छोड़ दिये और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई, डॉक्टर सिन्हा खड़े थे।
सुधा ने मुस्कराकर कहा- लो बहिन, बुला दिया। अब जितना चाहो, फटकारो। मैं दरवाजा रोके खड़ी हूं, भाग नहीं सकते।
डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा- भागता कौन है? यहां तो सिर झुकाए खड़ा हूं।
निर्मला ने हाथ जोड़कर कहा- इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा, भूल न जाइएगा। यह मेरी विनय है।


लेखक : मुंशी प्रेमचंद


आगे पढ़ें : अध्याय सत्रह

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