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देवधर की स्मृतियाँ - उपन्यास/ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

  देवधर की स्मृतियाँ - उपन्यास डॉक्टरों के आदेशानुसार दवा के बदलाव के लिए देवधर को जाना पड़ा। चलते वक्त कविगुरु की एक कविता बार-बार स्मरण हो...

 



देवधर की स्मृतियाँ - उपन्यास


डॉक्टरों के आदेशानुसार दवा के बदलाव के लिए देवधर को जाना पड़ा। चलते वक्त कविगुरु की एक कविता बार-बार स्मरण होने लगी-

“औषुधे डाक्टरे
व्याधिर चेये आधि हल बड़
करले जखन अस्थी जर जर
तखन बलले हावा बदल करो।”

हवा बदलने से क्या फायदा होता है, यह सभी जानते हैं, फिर भी लोग जाते ही हैं और मुझे भी जाना पड़ा।

मैं चारदीवारियों से घिरे हुए एक मकान में रहता हूँ। पास के किसी एक मकान से एक महाशय रात के तीन बजे से फटे बाँस की आवाज की तरह बेसुरे राग में भजन गाना आरंभ कर देते हैं, नींद उचट जाती है और मैं खीझकर बाहर बरामदे में आकर बैठ जाता हूँ।

धीरे-धीरे सुबह हो जाती है, पक्षियों का कलरव शुरू हो जाता है। सबसे पहले कोयल की आवाज सुनाई पड़ती है। सुबह होने के पहले ही सब पक्षी शोर मचाने लगते हैं और फिर धीरे-धीरे बुलबुल, श्यामा गौरैया और कोयल आदि भी जंगल के आम के पेड़ों, मेरे मकान के नीबू के पेड़ पर, सड़क पर स्थित पीपल के पेड़ पर शोर मचाने लगतीं। यद्यपि किसी को देख नहीं पाता था, फिर भी लगता था, जैसे इन सबको पहचानता हूँ।

पीले रंग के दो पक्षी रोजाना देर से आते थे और दीवार के पास वाले चीड़ के पेड़ की सबसे ऊँची डाल पर आकर हाजिरी दे जाते थे। अचानक दो दिन तक वे दोनों नहीं आए। मन में यह डर उत्पन्न हुआ कि कहीं किसी ने उन दोनों को पकड़ तो नहीं लिया। इधर शिकारी भी काफी हैं, पक्षियों का ही रोजगार करते हैं, लेकिन तीसरे दिन उन्हें यथास्थान देखकर संतोष हो गया। इस तरह सुबह समाप्त हो जाती है।

शाम के समय गेट के बाहर सड़क के एक ओर आकर बैठ जाता हूँ। टहलने की शक्ति मुझमें नहीं है, इसलिए जो लोग टहलते रहते हैं, उनकी ओर भरी दृष्टि से देखता रहता हूँ। टहलने वालों में अधिकतर मध्यम वर्ग के पुरुष और नारी ही थे। उनमें कुछ के पैर फूले रहते थे, जिसे देखते ही समझ जाता था कि बेरी-बेरी के रोगी हैं। अपनी इस कमजोरी को छिपाने के लिए उन्हें कष्ट सहन करना पड़ता है। जबकि सर्दी का मौसम नहीं है, फिर भी अपने फूले हुए पाँव को ढकने के लिए ये मौजा पहनते हैं, किसी की धोती जमीन लथेड़ती है, इससे उन्हें चलने में कष्ट हो रहा है, फिर भी लोगों की दृष्टि से वे अपने आपको बचाना चाहते हैं।

मुझे सबसे अधिक दुःख होता था एक दरिद्र लड़की को देखकर। रोगमुक्त होकर पैदल चलकर पुनः खोई हुई ताकत को प्राप्त कर लेगी और तब पति, पुत्र, गृहस्थी में जाकर अपने नारी जीवन को सार्थक करेगी। मैं अपने स्थान पर बैठा यही सब सोचा करता था। एक बंगाली लड़की इससे ज्यादा क्या कामना कर सकती है। मैं मन-ही-मन आशीर्वाद देते हुए कामना करता कि वह स्वस्थ होकर अपने घर वापस चली जाए।

जिन तीन लड़कों ने उसकी जीवन-शक्ति का शोषण कर लिया है, उन्हें जिंदा रखने के लिए उसमें आत्मबल और शक्ति पैदा हो जाए। यह किसकी लड़की है, किसकी बहू है, यह मैं नहीं जानता लेकिन यह लड़की हमारे देश की उन अनगिनत लड़कियों का प्रतीक बनकर मेरे मन में जो एक लकीर खींच गई, वह कभी न मिट सकेगी।

मेरे साथ एक जवान मित्र निस्स्वार्थ सेवा करने के लिए आए हुए थे। कलकत्ता में बीमारी के समय जैसा देखा था, ठीक वैसा ही यहाँ भी पाया। प्रायः वह कह उठता, “चलिए भाईसाहब, कहीं टहल आया जाए।”

मैं कहता, “तुम टहल आओ। मैं यहीं बैठा रहूँगा।”

वह असहिष्णु होकर कहता, “आपसे अधिक आयु के व्यक्ति चहलकदमी कर रहे हैं। अगर आप टहलेंगे नहीं तो भूख कम लगेगी।”

मैं कहता, “पर बेकार घूमना मुझे पसंद नहीं, भाई।”

वे नाराज होकर अकेले ही चले जाते, लेकिन जाते समय मुझे सावधान कर दिया करते, “अँधियारा होने के पहले वापस आ जाइएगा। नौकरों से लालटेन मँगवा लीजिएगा। इधर ‘करइत’ साँप अधिक हैं। कहीं बदन पर पैर पड़ गया तो खैर नहीं।”

उस दिन मित्र साहब कहीं गए हुए थे। शाम का समय था। कुछ लोग, भोजन का समय हो गया है, यह समझकर तेजी से अपने घर की ओर जा रहे थे। संभवतः ये सभी लोग मुसीबत से घिरे हैं और शाम होने के पहले ही अपने दड़बे में प्रवेश कर जाते हैं। उन लोगों के चलने की गति देखकर मुझे भी जोश आ गया। सोचा, ‘चलूँ, कुछ दूर टहल आऊँ।’

उस दिन काफी देर तक टहलता रहा। अंधकार करीब होने के कारण घर की ओर ज्यों ही रवाना हुआ तो देखा, पीछे-पीछे एक कुत्ता भी चला आ रहा है। मैंने उससे कहा, “क्या है रे? मेरे साथ चलेगा? अँधियारे रास्ते का तू ही साथी बन जा।”

वह दूर खड़ा अपनी पूँछ हिलाता रहा। मैं समझ गया, उसे मेरा प्रस्ताव स्वीकार है। फिर मैंने कहा, “अच्छा, आ मेरे साथ।”

कुछ दूर आगे बढ़कर रोशनी के सामने देखा, वह दुबला-पतला वृद्ध सा है, बदन पर अधिकांश जगहों पर बाल नहीं हैं, वह कुछ लँगड़ाकर चल रहा था। अपनी जवानी के समय शक्तिवान होगा, इसमें कोई शक नहीं। उसी कुत्ते से बातचीत करता हुआ मैं घर के सामने आ गया। दरवाजा खोलकर मैंने कहा, “आओ, अंदर आओ, आज तुम मेरे मेहमान हो।”

वह बाहर खड़ा अपनी पूँछ हिलाता रहा। भीतर आने का साहस नहीं हुआ। तभी नौकर लालटेन लेकर आया। दरवाजा बंद करते देख मैंने कहा, “आज दरवाजा बंद करने की जरूरत नहीं है। अगर वह कुत्ता आए तो उसे कुछ खाने को दे देना।”

एक घंटे बाद जब पता लगाया तो मालूम हुआ कि कुत्ता भीतर नहीं आया, न जाने कहाँ चला गया। दूसरे दिन सवेरे बाहर आकर देखा, दरवाजे के पास ही मेहमान साहब खड़े हैं। प्रत्युत्तर में मेरी ओर देखते हुए पूँछ हिलाने लगे। मैंने कहा, “आज जरूर भोजन करना। बिना खाए मत जाना। समझे!”

इस प्रश्न के उत्तर में वह बराबर पूँछ हिलाने लगा। मैं समझ गया, वह राजी है। रात के समय नौकर ने आकर सूचना दी कि कल वाला कुत्ता बाहर बरामदे में आकर बैठा है। रसोइए को बुलाकर मैंने कहा, “आज वह मेरा मेहमान है, उसे भरपेट भोजन दिया जाए।”

मुझे यह मालूम था कि नित्य काफी भोजन फेंक दिया जाता है। इससे किसी को आपत्ति नहीं होगी, लेकिन आपत्ति थी और वह भी भयंकर मुसीबत। हम लोगों के बचे भोजन की हकदार थी बगीचे की मालिन। मुझे यह बात नहीं मालूम थी। मालिन देखने में जवान है, खूबसूरत है और भोजन के संबंध में संत है। नौकरों का झुकाव उस पर अधिक है। फलस्वरूप मेरा मेहमान उपवास करता है।

शाम के समय जब टहलने निकलता हूँ तो नित्य उसे सड़क पर पहले से ही स्वागत में खड़ा देखता हूँ। चलते-चलते पूछता हूँ, “क्यों भाई, आज गोश्त कैसा बना था? उसकी हड्डियों में तुम्हें स्वाद मिला या नहीं?”

उत्तर में उसे पूँछ हिलाते देख मैं समझ गया, गोश्त उसे पसंद आया था। मुझे यह नहीं मालूम था कि मालिन ने उसे बगीचे से खदेड़ दिया है। अब वह उसे बाग में घुसने नहीं देती। फलस्वरूप बेचारा सड़क पर मेरे इंतजार में खड़ा रहता है। इस कार्य में नौकरों का भी हाथ था।

अचानक दरवाजे पर छाया देखकर मैं चौंक उठा। देखा, मेरे मेहमान सामने खड़े होकर पूँछ हिला रहे हैं। दोपहर होने के कारण सभी नौकर सो गए हैं, इसलिए हजरत चुपचाप कैसे ऊपर तक चले आए हैं! सोचा, संभवतः दो दिन से दिखाई न पड़ने के कारण मुझे देखने के लिए चला आया है। कहा, “आओ दोस्त, चले आओ।”

लेकिन वह आगे तक नहीं आया। पूछा, “खा-पी चुके? क्या-क्या खाया?”

अचानक उसकी आँखों के छोर पर पानी दिखाई पड़ा। लगा जैसे वह मेरे पास फरियाद लेकर आया है। चिढ़कर मैंने नौकर को आवाज दी। दरवाजा खुलने की आवाज से मेरा दोस्त जाग गया। नौकर के आने पर पूछा, “आज कुत्ते को खिलाया गया था?”

“जी नहीं, मालिन ने उसे भगा दिया।”

“खाना जो बचा था, उसका क्या हुआ?”

“मालिन सब उठा ले गई है।”

चिल्लाहट सुनकर मेरे मित्र महोदय आँखें बंद करते हुए ऊपर आए। कहा, “भाई साहब, आप भी अजीब तमाशा करते हैं, इनसान को तो भरपेट भोजन मिल नहीं रहा है और आप कुत्ते के लिए परेशान हो रहे हैं।”

मित्र महोदय जानते हैं कि इस अकाट्य युक्ति का कोई जवाब नहीं है। मैं चुप रह गया। किसकी फरियाद किसके द्वारा वहाँ पहुँचती है, उन्हें कैसे समझाऊँ? समझाना मेरे बूते का कार्य नहीं है। खैर, जो भी हो, मेरे मेहमान को बुलाया गया है और उसे बरामदे के कोने में जगह दे दी गई है।

आज सुबह से सामान वगैरह बाँधा जा रहा था। दोपहर को गाड़ी जाती है। गेट के सामने बैलगाड़ी आई, उस पर सभी सामान लाद दिया गया। मेरे मेहमान महोदय आज बहुत व्यस्त रहे। कुलियों के साथ दौड़-दौड़कर खबरदारी कर रहे थे कि वहाँ कोई सामान छूट न जाए। उसका उत्साह सबसे ज्यादा था। टिकट खरीद लिया। माल-असबाब गाड़ी पर चढ़ा दिया गया, तभी मेरे मित्र ने आकर खबर दी कि गाड़ी छूटने वाली है। जो लोग मुझे पहुँचाने आए थे, सभी को इनाम दिया गया, सिर्फ मेरे मेहमान को नहीं दिया गया।

गरम हवा के झोंके से आँखों में अँधेरा छा गया। उस अंधकार में मैंने देखा, स्टेशन के बाहर फाटक के पास मेहमान महोदय खड़े एकटक देख रहे हैं। गाड़ी चल पड़ी। वापस लौटने के लिए मेरा मन बेचैन नहीं था। सिर्फ रह-रहकर यही याद आ रही थी कि आज जब मेरा मेहमान वापस जाएगा तो देखेगा कि लोहे के फाटक वाला दरवाजा बंद है। अब उसके भीतर प्रवेश करना कठिन है। दो दिन तक इधर-उधर टहलता रहेगा। शायद सुनसान दोपहर में दीवार फाँदकर भीतर आकर मेरी तलाश करे। फिर जहाँ से आया था, वहीं वापस चला जाएगा। शायद उससे छोटा जीव शहर में और कोई नहीं है, फिर भी देवधर की स्मृति में उसे स्मरणीय बनाने की इच्छा से यह कहानी लिख दी।


लेखक : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय



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दैनिक साहित्य पत्रिका: देवधर की स्मृतियाँ - उपन्यास/ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
देवधर की स्मृतियाँ - उपन्यास/ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
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