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श्रीकान्त : उपन्यास - अध्याय 4/ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

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अध्याय 3 पढ़े...

उपन्यास : श्रीकान्त 

अध्याय 4


मनुष्य के भीतर की वस्तु को पहिचान कर उसके न्याय-विचार का भार अन्तर्यामी भगवान के ऊपर न छोड़कर मनुष्य जब स्वयं उसे अपने ही ऊपर लेकर कहता है 'मैं ऐसा हूँ, मैं वैसा हूँ, यह कार्य मेरे द्वारा कदापि न होता, वह काम तो मैं मर जाने पर भी न करता', आदि- तब ये बातें सुनकर मुझे शर्म आए बिना नहीं रहती। और फिर केवल अपने मन के ही सम्बन्ध में नहीं, दूसरों के सम्बन्ध में भी, मैं देखता हूँ, कि मनुष्य के अहंकार का मानो अन्त ही नहीं, है। एक दफे समालोचकों के लेखों को पढ़कर देखे, बिना हँसे रहा ही नहीं जाता। कवि को अतिक्रम करके वे काव्य के मनुष्य को चीन्ह लेते हैं और जोर के साथ कहते हैं, “यह चरित्र किसी तरह भी वैसा नहीं हो सकता- वह चरित्र कभी वैसा नहीं कर सकता,” ऐसी और कितनी ही बातें हैं। लोग वाहवाही देकर कहते हैं, “वाह इसी को तो कहते हैं क्रिटिसिजम! इसी को तो कहते हैं चरित्र-समालोचना! सच, ही तो कहा! अमुक समालोचक के होते हुए चाहे जो कुछ लिख देने से कैसे चल सकता है! देखो, पुस्तक में जो अंटसंट भूलें और भ्रान्तियाँ थीं की सभी किस तरह छान-बीनकर रख दी गयी है!” सो रख देने दो। भूल भला किससे नहीं होती? किन्तु, फिर भी तो मैं अपने जीवन की आलोचना करके- यह सब पढ़कर, उन लोगों की लज्जा के मारे अपना सिर ऊपर नहीं उठा सकता। मन ही मन कहता हूँ, “हाय रे दुर्भाग्य! यह जो कहा जाता है कि मनुष्य की अन्तर की वस्तु अनन्त है सो क्या केवल कहने- भर की बात है! दम्भ प्रकट करने के समय क्या इसकी कानी कौड़ी की भी कीमत नहीं है? तुम्हारे कोटि जन्मों के न जाने कितने असंख्य कोटि अद्भुत व्यापार इस अनन्त में मग्न रह सकते हैं और एकाएक जागरित होकर तुम्हारी बहुज्ञता, तुम्हारा पढ़ना-लिखना, तुम्हारी वि‍द्वता, और तुम्हारे मनुष्य की जाँच करने के क्षुद्र ज्ञान-भण्डार को एक मुहूर्त में चूर्ण कर सकते हैं, यह बात क्या एक दफा भी तुम्हारे मन में नहीं आती- यह भी क्या तुम नहीं समझ सकते कि, यह सीमाहीन आत्मा का आसन है?”

यही तो मैंने अन्ना जीजी में अपनी ऑंखों देखा है। उनकी उज्ज्वल दिव्य मूर्ति इस समय तक भी तो नहीं भूली; जीजी जब चली गयी तब न जाने कितनी गम्भीर स्तब्ध रात्रियों में ऑंखों के पानी से मेरा तकिया भीग गया है, और मन ही मन मैंने कहा है कि जीजी, मुझे अपने लिए अब और कुछ सोच नहीं है, तुम्हारे पारस-मणि के स्पर्श से मेरे अन्तर-बाहिर का समस्त लोहा सोना हो गया है। अब कहीं किसी भी तरह की आबोहवा की दुष्टता से जंग लगकर उसके क्षय होने का डर नहीं है; परन्तु कहाँ गयी तुम जीजी? जीजी, और किसी को भी मैं अपने इस सौभाग्य का हिस्सा नहीं दे सका, और कोई भी तुम्हें नहीं देख पाया! अन्यथा तुम्हारा दर्शन पाकर प्रत्येक उपस्थित व्यक्ति सच्चरित्र साधु हो जाता, इसमें मुझे लेश-भर भी सन्देह नहीं है। यह किस तरह सम्भव हो सकता है, इस बात को लेकर मैं उस समय बच्चों की-सी कल्पनाओं में सारी रात जागकर बिता देता था। कभी मन में आता, कि देवी चौधुरानी के समान यदि कहीं से मैं सात घड़े मुहरें पा जाऊँ तो अन्नदा जीजी को एक बड़े भारी सिंहासन पर बैठा दूँ, जंगल काटकर, जगह साफ करके, देश के लोगों को बुलाऊँ और उन्हें उनके सिंहासन के चारों ओर बसा दूँ। कभी सोचता, एक बड़े भारी बजरे में उन्हें विराजमान करके बैंड बजाता हुआ उन्हें देश-विदेश में लिये फिरूँ। इसी तरह न जाने कितने विलक्षण आकाश-कुसुमों की मैं मालाएँ गूँथता रहता, इस समय उन्हें याद करके भी मुझे हँसी आती है। साथ ही ऑंखों से ऑंसू भी कुछ कम नहीं गिरते।

उस समय मेरे मन के भीतर यह विश्वास हिमाचल के समान दृढ़ होकर बैठ गया था कि मुझे मुग्ध कर सके ऐसी नारी इस लोक में तो निश्चय से नहीं, है-परन्तु परलोक में भी है या नहीं इसकी भी मानो मैं कल्पना नहीं कर सकता था। सोचता था कि जीवन में जब कभी किसी के मुँह से ऐसी कोमल बोली, होठों में ऐसी मधुर हँसी, ललाट पर ऐसा अलौकिक तेज, ऑंखों में ऐसी सजल करुण दृष्टि पाऊँगा, तभी मैं ऑंख उठाकर उसकी ओर देखूँगा! जिसे मैं अपना मन दूँगा वह भी मानो ऐसी ही सती साध्वीं होगी; उसके भी प्रत्येक कदम पर मानो ऐसी ही अनिवर्चनीय महिमा फूट उठेगी, इसी तरह वह भी मानो संसार का समस्त सुख-दुख, समस्त अच्छा-बुरा, समस्त धर्म-अधर्म त्याग करके ही मुझे ग्रहण कर सकेगी।

“¹ स्व. बंकिमचन्द्र चट्टोपाधयाय के प्रसिद्ध उपन्यास 'देवी चौधुरानी' की मुख्य नायिका।”

मैं वही तो हूँ! तो भी आज सुबह नींद खुलते ही किसी के मुँह की वाणी ने, किसी के होठों की हँसी ने, किसी के चक्षुओं के जलने, याद आकर, हृदय में थोड़ी-सी पीड़ा उत्पन्न कर दी। मेरी संन्यासिनी जीजी के साथ कहीं किसी भी अंश में उसका बिन्दु मात्र भी सादृश्य था? फिर भी ऐसा ही मालूम हुआ। छ:-सात रोज पहले अन्तर्यामी भगवान भी आकर यदि यह कहते तो, मैं हसकर उड़ा देता और कहता, “अन्तर्यामी इस शुभ कामना के लिए तुम्हें हजारों धन्यवाद! किन्तु तुम अपना काम देखो, मेरी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। मेरे हृदय की कसौटी पर असल सोना कसा जा चुका है, वहाँ अब पीतल की दुकान खोलने से खरीददार नहीं जुटेंगे।”

परन्तु फिर भी खरीददार जुट गया। मेरे अन्तर में जहाँ कि अन्नदा जीजी के आशीर्वाद से खरा सोना भरा पड़ा था, एक अभागा, पीतल का लोभ नहीं सँभाल सका और उसे खरीद बैठा- यह क्या कुछ कम अचरज की बात है!

मैं खूब समझता हूँ कि जो लोग कठोर आलोचक हैं वे मेरी आत्मकथा में इस स्थान पर अधीर होकर बोल उठेंगे, “इतना फुलाकर- अतिरंजित करके आखिर, बाबू, तुम कहना क्या चाहते हो? अच्छी तरह स्पष्ट करके ही कह दो न कि वह कौन है? आज सोकर उठते ही प्यारी का मुँह याद करके तुम व्यथित हो उठे थे- यही न? जिसे मन के दरवाजे पर से ही झाड़ू मारकर बिदा कर देते थे आज उसे ही बुलाकर घर में बसाना चाहते हो- यही न? तो ठीक है। यदि यह सत्य है, तो इसके बीच में तुम अपनी अन्नदा जीजी का नाम मत लो। क्योंकि, तुम चाहे जितनी बातें, चाहे जिस तरह बना-सजाकर क्यों न कहो, हम लोग मानव-चरित्र खूब समझते हैं। हम यह जोर देकर कह सकते हैं कि सती-साध्वीा का आदर्श तुम्हारे मन के भीतर स्थायी नहीं हुआ, उसे अपनी सारी शक्ति लगाकर तुम कभी नहीं ग्रहण कर सके। यदि कर सके होते तो इस मिथ्या में अपने को न भुला सकते।”

यह ठीक है। किन्तु अब और तर्क नहीं करूँगा। मैंने समझ लिया है कि मनुष्य अन्त तक किसी तरह भी अपना पूरा-पूरा परिचय नहीं पाता। वह जो नहीं है, वही अपने को समझ बैठता है और बाहर प्रचार करके केवल विडम्बना की सृष्टि करता है और जो दण्ड इसका भोगना पड़ता है, वह भी बिल्कुल हलका नहीं होता। किन्तु रहने दो, मैं तो खुद जानता हूँ कि किस नारी के आदर्श पर इतने दिन क्या बात 'प्रीच' (उपदेश) करता फिरा हूँ। इसलिए, मेरी इस दुर्गति के इतिहास पर लोग जब कहेंगे कि श्रीकान्त 'हम्बग-हिप्पोक्रेट' है, तब चुपचाप मुझे सुन ही लेना पड़ेगा। फिर भी मैं 'हिप्पोक्रेट' नहीं था; 'हम्बग' करने का मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव सिर्फ इतना ही है कि मुझमें जो दुर्बलता अपने आपको छुपाए हुई थी उसकी खबर मैंने नहीं रक्खी। आज जब वह, समय पाकर, सिर उठाकर खड़ी हो गयी और जब उसने अपने ही समान और भी एक दुर्बलता को सादर आह्नान करके एकबारगी अपने भीतर बिठा लिया, तब असह्य विस्म।य से मेरी ऑंखों में से ऑंसू गिर पड़े; किन्तु 'जा' कहकर उसे बिदा करते भी मुझसे नहीं बन पड़ा। यह भी मैं जानता हूँ कि आज लज्जा के मारे अपना मुँह छिपाने के लिए मेरे पास कोई स्थान नहीं है; किन्तु हृदय का कोना-कोना पुलक से आज परिपूर्ण हो उठा है! नुकसान जो होना हो सो हो, हृदय तो इसका त्याग करना नहीं चाहता!

“बाबू साहब!” राजा का नौकर आ पहुँचा। शय्या पर मैं सीधा होकर बैठ गया। उसने आदरपूर्वक कहा, “कुमार साहब तथा और भी बहुत से लोग आपकी गत रात्रि की कहानी सुनने के लिए आपके आने की राह देख रहे हैं।”

मैंने पूछा, “उन्हें मालूम कैसे हुआ?” बैरा बोला, “तम्बू के दरबान ने बतलाया है कि आप रात के अन्त में वापिस लौट आए हैं।”

हाथ-मुँह धो कपड़े बदल, जैसे ही मैं बड़े तम्बू के अन्दर गया कि सब लोगों ने एक साथ शोर मचा दिया। एक ही साथ मानो एक लाख प्रश्न हो गये। मैंने देखा कि कल के वे वृद्ध महाशय भी वहाँ हैं और एक तरफ प्यारी भी अपने दल-बल को लेकर चुपचाप बैठी है। रोज के समान आज उससे चार ऑंखें नहीं हुईं। मानो वह जान-बूझकर ही और किसी तरफ ऑंखें फिराए बैठी थी।

आकुल सवालों की लहर के शान्त होते ही मैंने जवाब देना शुरू किया। कुमारजी बोले, “धन्य है तुम्हारा साहस, श्रीकान्त। कितनी रात को वहाँ पहुँचे थे?”

“बारह और एक के बीच।”

वृद्ध महाशय बोले, “घोर अमावस्या! साढ़े ग्यारह बजे के बाद अमावस पड़ी थी।”

चारों तरफ से अचरज सूचक ध्ववनि उठकर क्रमश: शान्त होते ही कुमारजी ने फिर प्रश्न किया, “उसके बाद क्या देखा?”

मैं बोला, “दूर तक फैले हुए हाड़-पिंजर और खोपड़ियाँ।”

कुमारजी बोले, “उफ, कैसा भयंकर साहस है! श्मशान के भीतर गये थे या बाहर खड़े रहे थे?”

मैं बोला, “भीतर जाकर एक बालू के ढूह पर जाकर बैठ गया था।”

“उसके बाद- उसके बाद? बैठकर क्या देखा?”

“बालू के टीले साँय-साँय कर रहे हैं।”

“और?”

“काँस के झुरमुट और सेमर के वृक्ष।”

“और?”

“नदी का पानी।”

कुमारजी अधीर होकर बोले, “यह सब तो जानता हूँ जी! पूछता हूँ कि वह सब कुछ...”

मैं हँस पड़ा और बोला, “और दो-एक बड़े चमगीदड़ सिर के ऊपर से उड़कर जाते हुए देखे थे।”

वृद्ध महाशय ने स्वयं उस समय आगे बढ़कर पूछा, “और कुछ नहीं देखा?” मैं बोला, “नहीं।”

उत्तर सुनकर तम्बू-भर के आदमी मानो निराश हो गये। उस समय वृद्ध महाशय एकाएक क्रूद्ध हो उठे, “ऐसा कभी हो नहीं सकता। आप गये ही नहीं।” उनके गुस्से को देखकर मैंने सिर्फ हँस दिया। क्योंकि बात ही गुस्से होने की थी। कुमारजी मेरा हाथ दबाकर मिन्नत भरे स्वर से बोले, “तुम्हें कसम है श्रीकान्त, क्या-क्या देखा, सच-सच कह दो?”

“सच ही कहता हूँ, कुछ नहीं देखा।”

“कितनी देर ठहरे वहाँ पर?”

“तीनेक घण्टे।”

“अच्छा, देखा नहीं, कुछ सुना भी नहीं?”

“सुना।”

क्षण-भर में ही सबका मुँह उत्साह से प्रदीप्त हो उठा। क्या सुना, उसे सुनने के लिए लोग कुछ और भी आगे सरक आए। तब मैंने कहना शुरू किया कि किस तरह रास्ते के ऊपर एक रात्रि-चर पक्षी 'बाप' कहकर उड़ गया, किस तरह बच्चे की सी आवाज में एक पक्षी के बच्चे ने सेमर के वृक्ष पर रिरिया-रिरिया कर रोना शुरू कर दिया, किस तरह एकाएक ऑंधी उठी और मृत मनुष्यों की खोपड़ियाँ दीर्घ श्वास छोड़ने लगीं और सबके अन्त में किस तरह मानो कोई मेरे पीछे खड़ा होकर लगातार बरफ सरीखी ठण्डी साँस दाहिने कान पर छोड़ने लगा। मेरा कथन समाप्त हो गया किन्तु देर तक किसी के मुँह से एक भी शब्द बाहर न निकला। सारा तम्बू मानो सन्न हो रहा। अन्त में वह वृद्ध व्यक्ति एक लम्बी उसास छोड़कर मेरे कन्धों पर एक हाथ रखकर, धीरे-धीरे बोला, “बाबूजी, आप सचमुच ही ब्राह्मण के बच्चे हैं, इसीलिए कल अपनी जान लिये लौट आए। नहीं तो और कोई जिन्दा नहीं लौट सकता था। किन्तु, आज से इस बुङ्ढे की कसम है बाबूजी, फिर कभी ऐसा दु:साहस न कीजिएगा। आपके माँ-बाप के चरणों में मेरे कोटि-कोटि प्रणाम- केवल उन्हीं के पुण्य-प्रताप से आप बच गये हैं।” इतना कहकर उसने झोंक में आकर चट से मेरे पैर छू लिये।

पहले कह चुका हूँ कि यह मनुष्य बात कहना खूब जानता था। इस दफा उसने बात कहना शुरू किया! ऑंखों की पुतलियाँ और भौहें, कभी सिकोड़कर और कभी फैलाकर, कभी बुझाकर और कभी प्रज्ज्वलित करके उसने पक्षी के रोने से शुरू करके कान पर ठण्डी उसास के छोड़ने पर्यन्त की ऐसी सूक्ष्मातिसूक्ष्म व्याख्या जुटाई कि दिन के समय, इतने लोगों के बीच बैठे हुए भी मेरे सिर के बाल तक काँटों की तरह खड़े हो गये। कल सुबह की तरह आज भी प्यारी गुप-चुप कब सरक कर समीप आ बैठी, इस पर मेरा ध्याहन ही नहीं गया। एकाएक एक उसास के शब्द से गर्दन घुमाकर मैंने देखा कि वह ठीक मेरी पीठ के पीछे बैठी हुई निर्निमेष दृष्टि से बोलने वाले के मुँह की ओर देख रही है और उसके दोनों चिकने उजले गालों पर झड़े हुए अश्रुओं की दो धाराएँ सूखकर फूट उठी हैं। कब और किसलिए वह ऑंखों का जल बह निकला था, शायद वह बिल्कुमल ही जान नहीं सकी; नहीं तो उन्हें पोंछ डालती। किन्तु, उसी अश्रु-कलुषित तल्लीन मुख का पल-भर का दृष्टिपात ही मेरे हृदय में एक अग्नि की रेखा अंकित कर गया। बात समाप्त होते ही वह उठकर खड़ी हो गयी और कुमारजी को सलाम करके, अनुमति माँगकर, धीरे-धीरे बाहर चली गयी।

आज सुबह ही मेरे बिदा होने की बात थी। परन्तु, शरीर स्वस्थ नहीं था, इसलिए कुमारजी का अनुरोध स्वीकार करके मैं उस समय, जाना स्थगित करके, अपने तम्बू में वापस लौट आया। इतने दिनों के बाद आज प्यारी के आचरण में पहले-पहल मैंने दूसरा भाव देखा। इतने दिन उसने परिहास किया है, व्यंग किया है, और कलह का आभास तक भी उसके दोनों नेत्रों की दृष्टि में कुछ दिन घनीभूत हो गया है- यह सब मैंने अनुभव किया है। परन्तु, इस तरह की उदासीनता पहले कभी नहीं देखी। फिर भी, व्यथित होने के बदले मैं खुश ही हुआ। क्यों, सो जानता हूँ। यद्यपि युवती स्त्रियों के मन की गतिविधि को लेकर माथापच्ची करना मेरा पेशा नहीं है, और न इसके पहले यह काम मैंने कभी किया ही है, पर मेरे मन के भीतर जो बहुत जन्मों की अखण्ड धारावाहिकता छिपी हुई मौजूद है, उसके बहुदर्शन की अभिज्ञता से रमणी-हृदय का गूढ तात्पर्य स्पष्ट प्रतिभासित हो उठा। वह उसे अपना अपमान समझकर क्षुब्ध नहीं हुआ वरन् उसे प्रणय अभिमान समझकर पुलकित हो उठा। शायद, इसी छिपी हुई धारावाहिकता के गुप्त इशारे से मैंने अपनी श्मशान यात्रा के लिए यहाँ तक के इतिहास में, इस बात का उल्लेख तक नहीं किया कि कल-रात को मुझे श्मशान से लौटा लाने के लिए आदमी भेजे थे और वह स्वयं भी बात पूरी होते ही उसी तरह गुप-चुप बाहर चली गयी थी। इसीलिए है यह अभिमान! कल रात को लौटकर उसे मुलाकात करके मैंने यह नहीं कहा कि वहाँ क्या हुआ था। उससे जिस बात को अकेले बैठकर सुनने का सबसे पहले अधिकार था उसी को आज वह सबसे पीछे बैठकर मानो दैवात् ही सुन सकी है। परन्तु, अभिमान भी इतना मीठा होता है! जीवन में उसके स्वाद को उस दिन सबसे पहले उपलब्ध करके मैं बच्चे की तरह एकान्त में बैठ गया और लगातार चख-चखकर उसका उपभोग करने लगा।

आज दोपहर को मैं सो जाना चाहता था। बिस्तर पर लेटे-लेटे बीच-बीच में तन्द्रा भी आने लगी; परन्तु रतन के आने की आशा बार-बार हिला-हिलाकर उसे तोड़ देने लगी। इस तरह समय तो निकल गया परन्तु रतन नहीं आया! वह आएगा अवश्य, यह विश्वास मेरे दिल में ऐसा दृढ़ हो रहा था कि, जब बिस्तर छोड़कर बाहर आकर मैंने देखा कि सूर्य पश्चिम की ओर ढल पड़ा है, तब मुझे मन ही मन यह निश्चय हो गया कि जब मैं तन्द्रा में पड़ा हुआ था तब रतन, मेरे यहाँ आया है और मुझे निद्रित समझकर लौट गया है। मूर्ख! एक दफे पुकार ही लेता तो क्या हो जाता! दोपहर का निर्जन समय यों ही निरर्थक चला गया, यह सोचकर मैं क्रुद्ध हो उठा; परन्तु संध्याए के बाद वह फिर आएगा और एक छोटा-सा अनुरोध- नहीं तो लिखा हुआ एक पुर्जा- जो कुछ भी हो, गुप-चुप हाथ में थमा जायेगा; इसमें मुझे जरा भी संशय नहीं था; किन्तु यह समय कटे किस तरह? सामने की ओर देखते ही कुछ दूर पर विशाल जल-राशि एकदम मेरी ऑंखों के ऊपर झक्-झक् कर उठी। वह किसी विस्मृत जमींदार का विशाल यश था। वह तालाब करीब आधा कोस विस्तृत था। उत्तर की ओर से वह खिसक कर पुर गया था और घने जंगल से ढँक गया था। गाँव के बाहर होने के कारण गाँव की स्त्रियाँ उसके जल का उपयोग नहीं कर पाती थीं। बातों ही बातों में सुना था कि यह तालाब कितना पुराना है और किसने बनवाया था, इसका पता किसी को नहीं है। एक पुराना टूटा घाट था, उसी के एकान्त कोने में जाकर मैं बैठ गया। एक समय इसके चारों ओर बढ़ता हुआ गाँव था जो न जाने कब हैजे और महामारी के प्रकोप से ऊजाड़ होकर, फिर अपने वर्तमान स्थान में, सरक आया है। छोड़े हुए मकानों के बहुत-से निशान चारों ओर विद्यमान हैं। डूबते हुए सूर्य की तिरछी किरणों की छटने धीरे-धीरे झुककर तालाब के काले पानी में सोना मथ दिया, मैं एकटक होकर देखता रहा।

इसके बाद धीरे-धीरे सूर्य डूब गया। तालाब का काला पानी और भी काला हो गया। पास के ही जंगल में से दो-एक प्यासे सियार बाहर निकल कर डरते-डरते पानी पीकर चले गये। वहाँ से मेरे उठने का समय हो गया है- जिस समय को काटने के लिए मैं वहाँ गया था वह कट गया है, यह सब अनुभव करके भी मैं वहाँ से उठ न सका- मानों उस टूटे घाट ने मुझे जबरन बिठा रखा!

खयाल आया कि जहाँ पैर रखकर मैं बैठा हुआ हूँ वहीं पर पैर रखकर न जाने कितने आदमी कितनी दफा आए हैं, गये हैं। इसी घाट पर वे स्नान करते, मुँह धोते, कपड़े छाँटते और जल भरते थे। इस समय वे कहाँ के किस जलाशय में ये समस्त नित्य-कर्म पूर्ण करते होंगे? यह गाँव जब जीवित था तब निश्चय से वे लोग इस समय यहाँ आकर बैठते थे। कितने ही गान गाकर और कितनी ही बातें करके दिन-भर की थकावट दूर करते थे। इसके बाद अकस्मात् एक दिन जब महाकाल महामारी का रूप धारण करके सारे गाँव को नोच ले गया तब न जाने कितने मरणोन्मुख व्यक्ति प्यास के मारे यहाँ दौड़े आए हैं और इसी घाट के ऊपर अपना अन्तिम श्वास छोड़कर उसके साथ चले गये हैं। शायद उनकी पिपासातुर आत्मा आज भी यहीं पर चक्कर काटती फिरती होगी। यह भी कौन जोर देकर कह सकता है कि जो ऑंखों से नहीं दिखाई देता वह है ही नहीं? आज सुबह ही उस वृद्ध ने कहा था, “बाबूजी, मन में यह कभी मत सोचना कि मृत्यु के उपरान्त कुछ शेष नहीं रहता- असहाय प्रेतात्माएँ हमारे ही समान सुख-दु:ख, क्षुधा-तृषा लेकर विचरण नहीं करतीं।” इतना कहकर उसने वीर विक्रमाजीत की कथा, और न जाने कितनी ही तान्त्रिक साधु-सन्यासियों की कहानियाँ विस्तार से कह सुनाई थीं। और कहा था कि “यह भी मत सोचना कि समय और सुयोग मिलने पर वे दिखाई नहीं देती हैं या बात नहीं कर सकती हैं, अथवा नहीं करती हैं। तुम्हें उस स्थान पर और कभी जाने के लिए मैं नहीं कहता, परन्तु जो लोग यह काम कर सकते हैं उनके समस्त दु:ख किसी भी दिन सार्थक नहीं होते, इस बात पर स्वप्न में भी कभी अविश्वास मत करना।”

उस समय, सुबह के प्रकाश में, जिन कहानियों ने केवल निरर्थक हँसी का उपादान जुटा दिया था, इस समय वे ही कहानियाँ निर्जन गहरे अन्धकार के बीच कुछ दूसरे ही किस्म के चेहरे धारण करके दिखाई दीं। मन में आने लगा कि जगत में प्रत्यक्ष सत्य यदि कोई वस्तु है तो वह मृत्यु ही है। भली-बुरी सुख-दु:ख की ये जीवनव्यापी अवस्थाएँ मानो आतिशबाजी हैं, जो तरह-तरह के साज-सरंजाम के समान केवल किसी एक विशेष, दिन जलकर राख हो जाने के लिए ही इतने यत्न और कौशल्य के साथ बनकर तैयार हुई हैं। तब मृत्यु के उस पार का इतिहास यदि किसी तरह सुन लिया जा सके तो उसकी अपेक्षा बड़ा लाभ और क्या है? फिर उसे कोई भी कहे और कैसे भी कहे।

हठात् किसी के पैरों के शब्द से मेरा ध्यातन भंग हो गया। पलटकर देखा, केवल अन्धकार है, कहीं कोई नहीं है। मैं बदन झाड़कर उठ खड़ा हुआ। गत रात्रि की बात याद करके मन ही मन हँसकर बोला, नहीं, अब और यहाँ नहीं बैठ रहना चाहिए। कल दाहिने कान के ऊपर उसासा छोड़ गया था, आज आकर यदि बाएँ कान पर छोड़ना शुरू कर दे, तो यह कुछ अधिक सहज न होगा।

वहाँ बैठे-बैठे कितनी देर हो गयी और अब कितनी रात है, यह मैं ठीक तौर से निश्चित नहीं कर सका। मालूम होता है कि आधी रात के आस-पास का समय होगा। परन्तु अरे यह क्या? चला जा रहा हूँ तो चला ही जा रहा हूँ, उस सँकरी पगडण्डी का जैसे अन्त ही नहीं होना चाहता! इतने बहुत से तम्बुओं में से एक दीपक का भी प्रकाश नजर नहीं आता! बहुत देर से सामने एक बाँस का वृक्ष नजर रोके खड़ा था; एकाएक खयाल आया कि इसे तो आते समय देखा नहीं था! दिशा भूलकर, कहीं और किसी ओर तो नहीं चल दिया हूँ? कुछ और चलने पर मालूम हुआ कि वह बाँस का वृक्ष नहीं है, किन्तु, कुछ इमली के पेड़, एक दूसरे से सटे हुए, दिशाओं को ढके जमात बाँधकर खड़े हैं और उन्हीं के नीचे से रास्ता टेढ़ा-मेढ़ा होकर अदृश्य हो गया है। स्थान इतना अन्धकारपूर्ण है कि अपना हाथ भी अपने को नहीं दिखाई देता। छाती धड़धड़ाने लगी। अरे मैं जा कहाँ रहा हूँ? ऑंख-कान बन्द करके किसी तरह उन इमली के वृक्षों के पार जाकर देखता हूँ कि सामने अनन्त काला आकाश, जितनी दूर नजर जाती है उतनी दूर तक, विस्तृत हो रहा है। किन्तु सामने वह ऊँची-सी जगह क्या है? नदी के किनारे का सरकारी बाँध तो नहीं है? दोनों पैर मानो टूटने से लगे, फिर भी उन्हें किसी तरह घसीटकर मैं उसके ऊपर चढ़ गया। जो सोचा था ठीक वही हुआ। उसके ठीक नीचे ही वह महाश्मशान था! फिर किसी के कदमों का शब्द सामने से होकर नीचे श्मशान में जाकर विलीन हो गया। इस बार मैं किसी तरह लड़खड़ाता हुआ चला और उसी धूल-रेती के ऊपर बेहोश की तरह धप्प् से बैठ गया। अब मुझे लेश-भर भी सन्देह नहीं रहा कि कोई मुझे एक महाश्मशान से लेकर दूसरे महाश्मशान तक रास्ता दिखाता हुआ पहुँचा गया। जिसके पद-शब्द सुनकर, उस फूटे घाट पर, शरीर झाड़कर मैं उठ खड़ा हुआ था उसी के पद-शब्द, इतनी देर बाद, उस तरफ, सामने की ओर, विलीन हो गये।

हरेक घटना का कारण जानने की जिद मनुष्य को जिस अवस्था में होती है उस अवस्था को मैं पार कर गया हूँ। इसलिए, किस तरह उस सूचीभेद्य अन्धकार-पूर्ण आधी रात को मैं अकेला, रास्ते को पहिचानता हुआ, तालाब के टूटे घाट से इस महाश्मशान के समीप आ उपस्थित हुआ, और किसके कदमों की वह आवाज... उस स्थान से बुलाती और इशारा करती हुई, इतनी ही देर में सामने विलीन हो गयी, इन सब प्रश्नों की मीमांसा करने जैसी बुद्धि मुझमें नहीं है। पाठकों के समीप अपने इस दैन्य को स्वीकार करने में मुझे जरा भी लज्जा नहीं है। यह रहस्य आज भी मेरे समीप उतने ही अन्धकार से ढँका हुआ है। परन्तु, इसीलिए, प्रेत-योनि को स्वीकार करना भी इस स्वीकारोक्ति का प्रच्छन्न तात्पर्य नहीं है। क्योंकि, अपनी ऑंखों मैंने देखा है- हमारे गाँव में एक पागल था। वह दिन को, घर-घर घूमकर, भीख माँगकर खाता था और रात को बाँस के ऊपर कपड़ा डालकर, और उसे सामने की ओर ऊँचा करके, रास्ते-रास्ते बगीचों के झाड़ों की छाया में, घूमता-फिरता था। उसके चेहरे को देखकर अंधेरे में न जाने कितने लोगों की दँतौरी बँध बँध गयी है। इसमें उसका कोई स्वार्थ नहीं था, फिर भी यह उसका अंधेरी रात का नित्य का काण्ड था। मनुष्य को व्यर्थ ही डर दिखाने के लिए और भी जितने प्रकार के अद्भुत ढंग वह करता था उनकी सीमा नहीं थी। सूखी लकड़ियों के गट्ठे को पेड़ की डाल से बाँधकर उसमें आग लगा देता, मुख पर काली स्याही पोत कर विशालाक्षी देवी के मंदिर में बहुत क्लेश सहते हुए खड़ा रहता और उठा-बैठा करता, गहरी रात के समय घर के पिछवाड़े बैठकर नाक के सुर से किसानों के नाम ले-लेकर पुकारा करता- परन्तु, फिर भी, कोई किसी दिन उसे पकड़ न पाया। दिन के समय उसका चाल-चलन, स्वभाव-चरित्र आदि देखकर उस पर जरा-सा सन्देह करने की बात किसी के भी मन में उदय नहीं हुई। और यह केवल हमारे ही गाँव में नहीं- पास के आठ-दस गाँवों में भी वह यही करता फिरता था। मरते समय वह अपनी बदजाती खुद ही स्वीकार कर गया और उसके मरने के बाद भूत का उपद्रव भी वहाँ बन्द हो गया। इस क्षेत्र में भी शायद वैसा ही कुछ था-शायद नहीं भी हो। परन्तु जाने दो इस बात को।

हाँ, कह रहा था कि, उस धूल और रेती से भरे हुए बाँध के ऊपर जब मैं हतबुद्धि-सा होकर बैठ गया तब केवल दो लघु पद-ध्वंनियाँ भीतर जाकर धीरे-धीरे विलीन हो गयीं। खयाल आया, मानो उसने स्पष्ट करके बता दिया हो- “राम-राम, तूने यह क्या किया? मुझे इतनी दूर तक रास्ता बताकर ले आया, सो क्या वहाँ बैठ जाने के लिए? आ, आ, एक दफा हम लोगों के भीतर चला आ। इस तरह अपवित्र अस्पृश्य के समान प्रांगण के एकान्त में मत बैठ- हम सबके बीच में आकर बैठ।” यह बात मैंने कानों से सुनी थी या हृदय के भीतर अनुभव की थी, सो अब याद नहीं कर सकता। परन्तु, उस समय भी जो मुझे होश बना रहा, इसका कारण यह है कि चैतन्य को जबर्दस्ती पकड़ रखने से वह यों ही एक-प्रकार से बचा रहता है। बिल्कुधल ही नहीं चला जाता, यह मैंने अच्छी तरह देखा है। इसलिए यद्यपि दोनों ऑंखों को खोलकर मैं देखता रहा, परन्तु वह मानो तन्द्रा का देखना था। वह न तो नींद ही थी और न जागरण ही था। उसमें निद्रित का विश्राम भी नहीं रहता और जाग्रत का उद्यम भी नहीं आता।

फिर भी मैं इस बात को नहीं भूला कि बहुत रात बीत गयी है, मुझे तम्बू में लौटना है और उसके लिए कम-से-कम एक बार चेष्टा तो करनी चाहिए; किन्तु, मन में लगा कि यह सब व्यर्थ है। यहाँ पर मैं अपनी इच्छा से तो आया नहीं हूँ, आने की कल्पना भी नहीं की; इसलिए, जो मुझे इस दुर्गम रास्ते पर रास्ता दिखलाकर लाया है, उसका कुछ विशेष प्रयोजन है। वह मुझे यों ही न लौट जाने देगा। पहले मैंने सुना था कि अपनी इच्छा से इनके हाथों से छुटकारा नहीं मिलता। चाहे जिस रास्ते, चाहे जिस तरह, जोर करके क्यों न निकलो, सब रास्ते गोरख धन्धे की तरह घुमा-फिराकर पुरानी जगह पर ही लाकर हाजिर कर देते हैं!

इसलिए, चंचल होकर छटपटाना सम्पूर्ण तौर से अनावश्यक समझकर, मैं किसी तरह की हिलने-डुलने की भी चेष्टा किये बिना, जब स्थिर होकर बैठ गया तब जो वस्तु अकस्मात् देख पड़ी, वह मुझे किसी दिन भी विस्मृत नहीं हुई।

रात्रि का भी स्वतन्त्र रूप होता है और उसे, पृथ्वीन के झाड़-पाले, गिरिपर्वत आदि जितनी भी दृश्यमान वस्तुएँ हैं उनसे, अलग करके देखा जा सकता है, यह मानो आज पहले मेरी दृष्टि में आया। मैंने ऑंख उठाकर देखा कि अन्तहीन काले आकाश के नीचे, सारी पृथ्वील पर आसन जमाए, गम्भीर रात्रि ऑंखें मूँदे ध्या न लगाए बैठी है और सम्पूर्ण चराचर विश्व मुख बन्द किये, साँस रोके, अत्यन्त सावधानी से स्तब्ध होकर उस अटल शान्ति की रक्षा कर रहा है। एकाएक ऑंखों के ऊपर से मानो सौन्दर्य की एक लहर दौड़ गयी। मन में आया कि किस मिथ्यावादी ने यह बात फैलाई है कि केवल प्रकाश का ही रूप होता है, अन्धकार का नहीं? भला, इतना बड़ा झूठ मनुष्य ने किस तरह चुपचाप मान लि‍या होगा? यह तो आकाश और मर्त्य, सबको परिव्याप्त करके, दृष्टि से भीतर-बाहर अन्धकार का पूरा बढ़ा आ रहा है। वाह-वाह! ऐसा सुन्दर रूप का झरना और कब देखा है! इस ब्रह्माण्ड में जो जितना गम्भीर, जितना अचिन्त्य, जितना सीमाहीन है- वह उतना ही अन्धकारमय है। अगाध समुद्र स्याही जैसा काला है; अगम्य गहन अरण्यानी भीषण अन्धकारमय है। सर्व लोगों का आश्रय, प्रकाश का भी प्रकाश, गति की भी गति, जीवन का भी जीवन, सम्पूर्ण सौन्दर्य का प्राण-पुरुष भी, मनुष्य की दृष्टि में निबिड़ अन्धकारमय है। मृत्यु इसीलिए मनुष्य की दृष्टि में काली है, और इसीलिए उसका परलोक-पन्थ इतने दुस्तर अंधेरे में मग्न है! इसीलिए राधा के दोनों नेत्रों में समाकर जिस रूप ने प्रेम के पूर में जगत को बहा दिया, वह भी घनश्याम है। मैंने कभी ये सब बातें सोची नहीं, किसी दिन भी इस रास्ते चला नहीं; फिर भी न जाने किस तरह इस भय से भरे हुए महाश्मशान के समीप बैठकर, अपने इस निरुपाय नि:संग अकेलेपन को लाँघकर, आज सारे हृदय में एक अकारण रूप का आनन्द खेलने फिरने लगा और बिल्कुगल एकाएक यह बात मन में आई कि काले में इतना रूप है, सो पहले तो किसी दिन समझा नहीं! तब तो शायद मृत्यु भी काली होने के कारण कुत्सित नहीं है; एक दिन जब वह मुझे दर्शन देने आवेगी तब शायद उसके इस प्रकार के, कभी समाप्त न होने वाले, सुन्दर रूप से मेरी दोनों ऑंखें जुड़ा जाँयगी। और वह अगर दर्शन देने का दिन आज ही आ गया हो, तो है सुन्दर मेरे काले! ओ मेरी समीपस्थ पदध्व्नि! हे मेरे सर्व-दु:ख भय-व्यथाहारी अनन्त सुन्दर! तुम अपने अनादि अन्धकार से सर्वांग भरकर मेरी इन दोनों ऑंखों की दृष्टि में प्रत्यक्ष होओ, मैं तुम्हारे इस अन्धा-अन्धकार से घिरे हुए निर्जग मृत्यु-मन्दिर के द्वार पर, तुम्हें निर्भयता से वरण करके बड़े आनन्द से तुम्हारा अनुकरण करता हूँ। सहसा मेरे मन में आया- तब उसके इस निर्वाक् आह्नान की उपेक्षा करके अत्यन्त ही अन्त:वासी के समान, मैं यहाँ बाहर किसलिए बैठा हूँ? एक दफा भीतर बीच में क्यों न जा बैठूँ!

नीचे उतरकर मैं श्मशान के ठीक बीचों-बीच बिल्कु्ल जमकर बैठ गया। कितनी देर तक इस तरह स्थिर बैठा रहा, इसका मुझे उस समय होश नहीं था। होश आने पर देखा कि उतना अन्धकार अब नहीं रहा है- आकाश का एक प्रान्त मानो स्वच्छ हो गया है; और उसके पास ही शुक्र तारा चमक रहा है। कुछ दबी हुई-सी बातचीत का कोलाहल मेरे कानों में पहुँचा। अच्छी तरह निरीक्षण करके देखा, कि दूर पर सेमर के वृक्ष की आड़ में, बाँध के ऊपर से होकर कुछ लोग चले आ रहे हैं; और उनकी दो-चार लालटेनों का प्रकाश भी आसपास इधर-उधर हिल-डुल रहा है। फिर से, बाँध के ऊपर चढ़कर, उस प्रकाश में ही मैंने देखा कि दो बैलगाड़ियों के आगे-पीछे कुछ लोग इसी ओर बढ़े आ रहे हैं। समझ पड़ा कि कुछ लोग इस रास्ते होकर स्टेशन की ओर जा रहे हैं।

मुझे उस समय यह सुबुद्धि सूझ आई कि रास्ता छोड़कर मेरा दूर खिसक जाना आवश्यक है। क्योंकि, आगन्तुकों का दल चाहे कितना भी बुद्धिमान और साहसी क्यों न हो, एकाएक इस अंधेरी रात्रि में, इस तरह के स्थान में मुझे अकेला भूत की तरह खड़ा देखकर चाहे और कुछ न करे, परन्तु एक विकट चीख-पुकार अवश्य मचा देगा, इसमें कोई सन्देह नहीं।

मैं लौटकर अपनी पुरानी जगह पर जा खड़ा हुआ; और थोड़े समय बाद ही दो चटाई लगी हुई बैलगाड़ियाँ, पाँच-छह आदमियों के पहरे में, मेरे सामने आ पहुँचीं। एक बार खयाल आया कि आगे चलने वाले दो आदमी मेरी ओर देखकर, क्षण काल के लिए स्थिर हो, खड़े रहे और अत्यधिक धीमे स्वर में मानो कुछ कह-सुनकर आगे चले गये; और थोड़ी-सी ही देर में वह सारा दल, बाँध के किनारे की एक झाड़ी की ओट में, अदृश्य हो गया। यह अनुभव करके कि रात अब अधिक बाकी नहीं रही है, जब मैं लौटने की तैयारी कर रहा था, ठीक उसी समय उन वृक्षों की ओट में से आती हुई खूब ऊँचे कण्ठ की पुकार कानों में आई, “श्रीकान्त बाबू-”

मैंने उत्तर दिया, “कौन है रे, रतन?”

“हाँ बाबू, मैं ही हूँ। जरा आगे बढ़ आइए।”

जल्दी से बाँध के ऊपर चढ़कर पुकारा, “रतन, तुम लोग क्या घर जा रहे हो?”

रतन ने उत्तर दिया, “हाँ, घर जा रहे हैं- माँ गाड़ी में हैं।”

मेरे निकट पहुँचते ही प्यारी ने पर्दे में से मुँह बाहर निकालकर कहा, “दरबान की बात सुनकर ही मैं समझ गयी थी कि तुम्हें छोड़ और कोई नहीं है, गाड़ी पर आओ, कुछ बात करनी है!”

मैंने निकट आकर पूछा, “क्या बात है?”

“कहती हूँ, ऊपर आ जाओ।”

“नहीं, ऐसा नहीं कर सकता, समय नहीं है। सुबह होने के पहले ही मुझे तम्बू में पहुँचना है!” प्यारी ने हाथ बढ़ाकर चट से मेरा दाहिना हाथ पकड़ लिया और तेज ज़िद के स्वर में कहा, “नौकर-चाकरों के सामने छीना-झपटी, मत करो- तुम्हारे पैर पड़ती हूँ, चुपचाप ऊपर चढ़ आओ...”

उसकी अस्वाभाविक उत्तेजना से मानो कुछ हत-बुद्धि-सा होकर मैं गाड़ी पर चढ़ गया। प्यारी ने गाड़ी को हाँकने की आज्ञा देकर कहा, “आज फिर इस जगह क्यों आए?”

मैंने सच-सच बात कह दी, “नहीं मालूम, क्यों आया।”

प्यारी ने अब तक भी मेरा हाथ नहीं छोड़ा था। बोली, “तुम्हें नहीं मालूम? अच्छा, ठीक, परन्तु छिपकर क्यों आए थे?”

मैं बोला, “यह ठीक है कि यहाँ आने की बात किसी को मालूम नहीं है, किन्तु छिपकर नहीं आया हूँ।”

“यह झूठ बात है!”

“नहीं।”

“इसका मतलब?”

“मतलब यदि खोलकर बता दूँगा तो विश्वास करोगी? न तो मैं छिपकर ही आया हूँ, और न मेरी इच्छा ही आने की थी।”

प्यारी ने व्यंग्य के स्वर में कहा, “तो फिर तुम्हें तम्बू में से भूत उड़ा ले आया है- मालूम होता है, यही कहना चाहते हो क्यों?”

“नहीं, सो नहीं कहना चाहता। उड़ाकर कोई नहीं लाया, अपने ही पैरों चलकर आया हूँ, यह भी सच है किन्तु क्यों आया, कब आया, सो नहीं कह सकता।”

प्यारी चुप हो रही। मैं बोला, “राजलक्ष्मी, नहीं जानता कि तुम विश्वास कर सकोगी या नहीं; परन्तु, वास्तव में जो कुछ हुआ है, सो एक अचरज-भरा व्यापार है।” इतना कहकर मैंने सारी घटना अथ से इति पर्यन्त कह दी।

सुनते-सुनते मेरे हाथ में रक्खा हुआ उसका हाथ कई बार सिहर उठा; परन्तु उसने एक भी बात नहीं कही। पर्दा उठा हुआ था, पीछे की ओर नजर डालकर देखा, आकाश उज्ज्वल हो गया है। बोला, “अब मैं जाऊँ?”

प्यारी ने स्वप्नविष्ट की तरह कहा, “नहीं।”

“नहीं कैसे? इस तरह चले जाने का अर्थ क्या होगा, सो जानती हो?”

“जानती हूँ- सब जानती हूँ। परन्तु ये लोग तुम्हारे अभिभावक या संरक्षक तो हैं ही नहीं, जो तुम्हें अपने मान के लिए प्राण दे देने होंगे।” इतना कहकर उसने हाथ छोड़कर पैर पकड़ लिये और रुद्ध स्वर में कहा, “कान्त दादा, वहाँ लौटकर जाओगे तो जीते न बचोगे। तुम्हें मेरे साथ न चलना पड़ेगा, परन्तु वहाँ भी वापिस न लौटने दूँगी। तुम्हारा टिकट खरीदे देती हूँ, तुम घर लौट जाओ, वहाँ एक घड़ी-भर के लिए भी मत ठहरो।”

मैं बोला, “मेरे कपड़े-बिस्तर आदि जो वहाँ पड़े हैं!”

प्यारी बोली, “पड़े रहने दो। उनकी इच्छा होगी तो भेज देंगे; नहीं तो जाने दो। उनका मूल्य अधिक नहीं है!”

मैं बोला, “उनका दाम अधिक नहीं है यह सच है; परन्तु, मेरी जो मिथ्या बदनामी होगी, उसका दाम तो कम नहीं है।”

प्यारी मेरे पैर छोड़कर चुप हो रही। गाड़ी इसी समय एक मोड़ पर फिरी, जिससे पीछे का दृश्य मेरे सामने आ गया। एकाएक याद आया कि सामने के उस पूर्व दिशा के आकाश के साथ यह पतिता के मुख की मानो एक गहरी समानता है। दोनों के ही बीच से मानो एक विराट अग्नि-पिण्ड अन्धकार को भेदता हुआ आ रहा है, उसी का आभास मुझे दिखाई दिया है। मैं बोला, “चुप क्यों हो रही?”

प्यारी एक म्लान हँसी हँसकर बोलीं, “तुम क्या जानो कान्त बाबू, कि जिस कलम से जीवन-भर केवल जाली खत लिखती रही हूँ, उसी कलम से आज दान-पत्र लिखने को हाथ नहीं चल रहा है। जाते हो? अच्छा जाओ। किन्तु वचन दो कि आज बारह बजने के पहले ही वहाँ से चल दोगे?”

“अच्छा, देता हूँ।”

“किसी के कितने ही अनुरोध से आज की रात वहाँ न काटोगे, बोलो?”

“नहीं, नहीं, काटूँगा।”

प्यारी ने अपनी अंगूठी उतारकर मेरे पैरों पर रख दी, गल-वस्त्र होकर प्रणाम किया और पैरों की धूल अपने सिर पर लेकर उस अंगूठी को मेरी जेब में डाल दिया। बोली, “तब जाओ-मैं समझती हूँ कि डेढ़ेक कोस जगह तुम्हें अधिक चलना होगा।”

बैलगाड़ी से उतर पड़ा। उस समय प्रभात हो गया था।

प्यारी ने अनुनय करके कहा, “मेरी और भी एक बात तुम्हें रखनी होगी। घर लौटते ही मुझे एक पत्र लिखना होगा।”

मैंने मंजूर करके प्रस्थान किया। एक दफा भी लौटकर पीछे की ओर नहीं देखा कि वे लोग खड़े हैं अथवा आगे चल दिए हैं। परन्तु बड़ी दूर तक अनुभव करता रहा कि उन दो चक्षुओं की सजल-करुण दृष्टि मेरी पीठ के ऊपर बार-बार पछाड़ खा-खाकर गिर रही है।

अड्डे पर पहुँचते प्राय: आठ बज गये। रास्ते के किनारे, प्यारी के उखड़े हुए तम्बू की, बिखरी हुई परित्यक्त वस्तुओं पर मेरी नजर पड़ते ही एक निष्फल क्षोभ छाती में मानो हाहाकार कर उठा। मुँह फेरकर जल्दी-जल्दी पैर रखते हुए मैंने अपने तम्बू में प्रवेश किया।

पुरुषोत्तम ने पूछा, “आप बड़े भोर ही घूमने बाहर चले गये थे?”

हाँ-ना किसी तरह का जवाब दिए बगैर ही मैं बिस्तर पर ऑंखें बन्द करके लेट रहा।

प्यारी के निकट जो वादा किया था उसकी मैंने पूरी रक्षा की, घर लौटते ही मैंने यह खबर जताकर उसे एक चिट्ठी लिख दी। जवाब भी जल्द ही आ गया। मैं एक बात पर बराबर ध्या न दे रहा था कि किसी भी दिन प्यारी ने मुझे अपने पटने के मकान के लिए, जोर डालना तो दूर रहा, साधारण तौर से मौखिक निमन्त्रण भी नहीं दिया। इस पत्र में भी इसका कोई इशारा न था। सिर्फ नीचे की ओर एक निवेदन था, जिसे कि आज भी मैं नहीं भूला हूँ, “सुख के दिनों में नहीं, तो दु:ख के दिनों में मुझे न भूलिए- यही मेरी प्रार्थना है।”

दिन कटने लगे। प्यारी की स्मृति धुँधली होकर प्राय: विलीन हो गयी। परन्तु एक अचरज-भरी बात बीच-बीच में मेरी दृष्टि में पड़ने लगी कि अबकी दफा शिकार से वापिस लौटने के बाद से मेरा मन मानो कुछ अनमना-सा रहने लगा है, जैसे मानो एक अभाव की वेदना, दबी हुई सर्दी के समान, शरीर के रोम-रोम में परिव्याप्त हो गयी है। बिस्तरों पर जाते ही वह चुभने लगती है।

याद आता है कि वह होली की रात थी। माथे पर से अबीर का चूर्ण साबुन से धोकर तब तक साफ नहीं किया था। क्लान्त विवश शरीर से बिस्तर पर पड़ा था। पास की खिड़की खुली हुई थी; उसी में से सामने के पीपल के पत्तों की फाँकों में से आकाशव्यापी ज्योत्स्ना की ओर ताक रहा था। इतना ही याद आ रहा है। परन्तु क्यों दरवाजा खोलकर स्टेशन की ओर चल दिया और पटने का टिकिट कटाकर ट्रेन पर चढ़ गया-वह याद नहीं आता। रात बीत गयी। परन्तु दिन को जैसे ही मैंने सुना कि 'बाढ़' स्टेशन है और पटना आने में अब अधिक बिलम्ब नहीं है, वैसे ही एकाएक वहीं उतर पड़ा। जेब में हाथ डालकर देखा तो घबड़ाने का कोई कारण नज़र नहीं आधा-एक दुअन्नी और दसेक पैसे उस समय भी मौजूद थे। खुश होकर दुकान की खोज में स्टेशन से बाहर हो गया। दुकान मिल गयी। चिउड़ा, दही और शक्कर के संयोग से अत्युत्कृष्ट भोजन सम्पन्न करने में करीब आधा खर्च हो गया। होने दो, जीवन में इस तरह कितना ही खर्च हुआ करता है- इसके लिए रंज करना कायरता है।

गाँव घूमने के लिए बाहर हुआ। घण्टे-भर भी न घूमा था कि अनुभव हुआ, इस गाँव का दही और चिउड़ा जिस परिमाण में उपादेय है उसी परिमाण में पीने का पानी निकृष्ट है। मेरे इतने प्रचुर भोजन को इतने से समय में इस तरह पचाकर उसने नष्ट कर दिया कि, ऐसा मालूम होने लगा कि, मानो दस-बीस दिन से अन्न का दाना भी मुँह में नहीं पड़ा है! ऐसे खराब स्थान में वास करना एक मुहूर्त-भर के लिए भी उचित नहीं है, ऐसा सोचकर स्थान त्याग करने की कल्पना कर ही रहा था कि- देखता हूँ, पास में ही एक आम के बगीचे के भीतर से धुऑं निकल रहा है।

मैंने न्यायशास्त्र सीखा था। धुएँ को देखकर अग्नि का निश्चय से अनुमान कर लिया; इतना ही नहीं, वरन् अग्नि के हेतु का अनुमान करते भी मुझे देर नहीं लगी। इसलिए सीधा उसी ओर चल दिया। पहले ही कह चुका हूँ कि पानी यहाँ का बहुत ही खराब है।

वाह, यही तो चाहिए था! सच्चे सन्यासी का आश्रम मिल गया! बड़ी भारी धूनी के ऊपर लोटे में चाय के लिए पानी चढ़ा है। बाबा आधी ऑंखें मूँदे सामने बैठे हैं, उनके आस-पास गाँजे की सामग्री रखी है। एक सन्यासी बच्चा बकरी दुह रहा है, सेवा के लिए 'चाय' चाहिए। दो ऊँट, दो टट्टू और एक बछड़ेवाली गाय, पास-पास वृक्षों की डालों से बँधे हुए हैं। पास ही में एक छोटा-सा तम्बू है। ढूँककर देखा, भीतर मेरी ही उम्र का एक चेला दोनों पैरों के बीच पत्थर का खल दबाए नीम के सोंटे से भंग तैयार कर रहा है। देखकर मैं भक्ति से सराबोर हो गया और पलक मारते ही बाबाजी के पद-तल में एकबारगी लोट गया। पद-धूलि मस्तक पर धारण कर हाथ जोड़ मन ही मन बोला, “कैसी असीम करुणा है भगवान तुम्हारी! कैसे स्थान में मुझे ले आए। चूल्हे में जाय प्यारी-मुक्ति मार्ग के इस सिंह-द्वार को छोड़कर तिलार्ध भी यदि और कहीं जाऊँ तो, मेरे लिए, अनन्त नरक में भी और जगह न रहे।”

“साधुजी बोले, “क्यों बेटा?”

मैंने निवेदन किया, “मैं गृहत्यागी, मुक्तिपथान्वेषी हतभाग्य शिशु हूँ; मुझ पर दया करके अपनी चरण-सेवा का अधिकार दीजिए।”

साधुजी ने मृदु हँसी हँसकर दो दफा सिर हिलाकर संक्षेप में कहा, “बेटा, घर लौट जा, यह पथ अति दुर्गम है।”

मैंने करुण कण्ठ से उसी क्षण उत्तर दिया, “बाबा, महाभारत में लिखा है, महापापिष्ठ जगाई और माधाई वसिष्ठ मुनि के चरण पकड़कर स्वर्ग चले गये, तो क्या मैं आपके पैर पकड़कर मुक्ति भी नहीं पाऊँगा?।”

साधुजी प्रसन्न होकर बोले, “बात तेरा सच्चा हय। अच्छा बेटा, रामजी की खुशी।” जो दूध दुह रहा था उसने आकर चाय तैयार करके बाबाजी को दी। उसकी 'सेवा' हो गयी, हम लोगों ने प्रसाद पाया।

भाँग तैयार हो रही थी संध्यातकाल के लिए। परन्तु उस समय भी बेला बाकी थी इसलिए और तरह के आनन्द का उद्योग करते हुए 'बाबा ने अपने दूसरे चेले को गाँजे की चिलम इशारे से दिखा दी तथा उसे भरने में देर न हो इसके लिए विशेष 'उपदेश' दे दिया।

आधा घण्टा बीत गया। सर्वदर्शी बाबाजी मेरे प्रति परम सन्तुष्ट होकर बोले, “हाँ बेटा, तुममें अनेक गुण हैं। तुम मेरे चेला होने के अति उपयुक्त पात्र हो।

मैंने, परम आनन्द के साथ, और एक दफा बाबा के चरणों की धूलि मस्तक पर धारण कर ली।

दूसरे दिन मैं प्रात:स्नान करके आया। देखा कि गुरुजी के आशीर्वाद से अभाव किसी चीज का नहीं है। प्रधन चेला जो थे उन्होंने, एक नया टटका गेरुए कपड़ों का सूट, दस जोड़ी छोटी बड़ी रुद्राक्ष की मालाएँ और एक जोड़ा पीतल के कड़े बाहर निकाल दिये। जहाँ जो वस्तु धारण करने की थी उसे उस स्थान पर सजाकर, थोड़ी-सी धूनी की राख मस्तक पर और मुँह पर मल ली। ऑंखें मींचकर मैंने कहा, “बाबाजी, शीशा-वीसा कुछ है? एक दफा मुँह देखने की प्रबल इच्छा हो रही है।” मैंने देखा कि उन्हें भी रस का ज्ञान है। फिर भी उन्होंने कुछ गम्भीर होकर उपेक्षा से कहा, “है एक ठो।”

“तो फिर, छुपाकर ले न आइए एक दफा।”

दो मिनट के बाद आईना लेकर मैं एक वृक्ष की आड़ में चला गया। पश्चिम के नायी जिस तरह का आईना हाथ में देकर क्षौर-कर्म सम्पादित करते हैं, उसी तरह की वह छोटी सी टीन चढ़ी हुई आरसी थी। खैर जैसी भी हो, मैंने देखा कि वह विशेष तरद्दुद किये जाने और सदा व्यवहार में आने के कारण खूब साफ-सुथरी थी। चेहरा देखकर हँसे बिना न रहा गया। कौन कह सकता था कि मैं वही श्रीकान्त हूँ जो कुछ ही समय पूर्व राजे-राजवाड़ों की मजलिस में बैठकर बाईजी का गान सुना करता था? खैर, जाने दो।

मैं घण्टे-भर के बाद गुरुमहाराज के समीप दीक्षा के लिए लाया गया। महाराज चेहरा देखकर अतिशय प्रीति के साथ बोले, “बेटा, एकाध महीना ठहर जाओ।”

मैं धीरे-से 'बहुत अच्छा', कहकर उनकी पदधूलि ग्रहण करके, हाथ जोड़कर भक्ति से भरकर एक तरफ बैठ गया।

आज बातों ही बातों में उन्होंने आध्यानत्मिकता के अनेक उपदेश दिये। इसकी दुरूहता के विषय में गम्भीर वैराग्य और कठोर साधाना के विषय में-आजकल के भण्ड पाखण्डी लोग इसे किस तरह कलंकित करते हैं उसका विशेष विवरण तथा भगवत् के पाद-पद्मों में मति को स्थिर करने के लिए क्या-क्या करना आवश्यक है- इस काम में वृक्षजातीय शुष्क वस्तु विशेष के धुएँ को बार-बार मुख-विवर के द्वारा शोषण करके नासा-रन्ध्रं पथ से शनै:-शनै: विनिर्गत करने से कितना आश्चर्यकारी उपकार होता है- आदि सब उन्होंने अच्छी तरह समझा दिया, और इस विषय में मेरी अवस्था अत्यन्त आशाप्रद है, यह इशारे से बताकर उन्होंने मेरे उत्साह को खूब बढ़ाया! इस तरह उस दिन मोक्ष-पद के अनेक निगूढ़ तात्पर्यों को जानकर मैं, गुरु महाराज के तीसरे चेले के रूप में बहाल हो गया।

गहरे वैराग्य और कठोर साधना के लिए, महाराज के आदेश में, हम लोगों की सेवा की व्यवस्था कुछ कठोर किस्म की थी। परिणाम में वह जैसी थी स्वाद में भी वैसी ही थी। चाय, रोटी, घी, दूध, दही, चिवड़ा, शक्कर इत्यादि कठोर सात्वि‍क भोजन और उन्हें पचाने के अनुपान। भगवत्पादार्विदों से हमारा चित्त विक्षिप्त न हो, इस ओर भी हम लोगों की लेशमात्र लापरवाही नहीं थी। इसके फलस्वरूप मेरे सूखे काठ में फूल लग गये और कुछ तोंद बढ़ने के लक्षण भी दिखाई देने लगे।

एक काम था- भिक्षा के लिए बाहर जाना सन्यासी के लिए सर्वप्रधान कार्य न होने पर भी प्रधान कार्य था! क्योंकि सात्वि‍क भोजन के साथ इसका घनिष्ठ सम्बन्ध था। किन्तु महाराज स्वयं यह नहीं करते थे, उनके सेवक ही पारी-पारी से किया करते थे। सन्यासी के अन्य दूसरे कर्त्तव्यों में तो उनके दूसरे दो चेलों को मैं बहुत जल्द लाँघ गया; परन्तु केवल इस काम में बराबर लँगड़ाता रहा! इसे किसी दिन भी अपने लिए सहज और रुचिकर न बना सका। फिर भी, एक सुभीता यह था कि वह हिन्दुस्तानियों का देश था। मैं भले-बुरे की बात नहीं कहता- मैं सिर्फ यही कहता हूँ कि बंगाल देश की नाईं वहाँ की औरतें 'बाबा हाथ जोड़ती हूँ, और एक घर आगे जाकर देखो' कहकर उपदेश नहीं देतीं; और पुरुष भी 'नौकरी न करके तुम भिक्षा क्यों माँगते हो?' यह कैफियत तलब नहीं करते। धनी-निर्धन, बिना किसी भेदभाव के सब ही, प्रत्येक घर से, भिक्षा देते हैं- कोई विमुख नहीं जाता। इसी तरह दिन जाने लगे, पन्द्रह दिन तो उस आम के बाग में ही कट गये। दिन के समय तो कोई आपत-विपत नहीं थी, केवल रात्रि को मच्छरों के काटने की जलन के मारे मन ही मन लगता था कि, भाड़ में जाय मोक्ष-साधना। यदि शरीर के चमड़े को कुछ और मोटा न किया जायेगा, तो अब जान न बचेगी। अन्यान्य विषयों में बंगाली लोग चाहे जितने भी श्रेष्ठ क्यों न हों, परन्तु बंगाली चमड़े की अपेक्षा हिन्तुस्तानी चमड़ा, इस विषय में सन्यास के लिए बहुत अधिक अनुकूल है, यह स्वीकार करना ही पड़ेगा। उस दिन प्रात:स्नान करके सात्वि‍क भोजन प्राप्त करने के प्रयत्न में बाहर जा ही रहा था कि गुरु महाराज ने बुलाकर कहा,

“भारद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा! जिनहिं रामपद अति अनुरागा”

अर्थात् “स्ट्राइक दि टेण्ट” (तम्बू उखाड़ लो)- प्रयाग की यात्रा करनी होगी। परन्तु, यह कार्य कुछ सहज नहीं था, सन्यासी की यात्रा जो ठहरी! सधे हुए टट्टुओं को खोजते और उन पर सामान लादते, ऊँट पर महाराज की जीन कसते, गाय-बकरियों को साथ लेते, गट्ठे गठरियाँ बाँधते, सिलसिले से लगाते लगाते, एक पहर बीत गया। इसके बाद खाना खाकर दो कोस दूर संध्या् के पहले ही बिठौरा गाँव के गेंवडे एक विराट वटवृक्ष के नीचे डेरा जमाया गया। जगह बहुत ही सुन्दर थी, गुरु महाराज को खूब पसन्द आई। यह तो हुआ, परन्तु भारद्वाज मुनि के उस स्थान तक पहुँचते-पहुँचते कितने महीने लग जायेंगे, इसका मैं अनुमान नहीं कर सका।

इस बिठौरा गाँव का नाम अभी तक मुझे क्यों याद रहा है सो यहाँ कहता हूँ। उस दिन पूर्णिमा तिथि थी; इसलिए, गुरु के आदेश से हम तीनों जने तीन दिशाओं में भिक्षा के लिए बाहर निकल पड़े थे। अकेला होता तो उदर-पूर्ति के लिए कम कोशिश न करता। परन्तु, आज मेरी वह चाल नहीं थी, इसलिए बहुत कुछ निरर्थक यहाँ-वहाँ घूम रहा था। एकाएक एक मकान के खुले दरवाजे के भीतर से मुझे एक बंगाली लड़की का चेहरा दिखाई पड़ गया। उसके कपड़े यद्यपि देशी करघे पर बुने हुए टाट की तरह मोटे थे, किन्तु उन्हें पहिनने के विशेष ढंग ने ही मेरे कुतूहल को उत्तेजित कर दिया। मैंने सोचा, पाँच-छ: दिन से इस गाँव में हूँ, करीब-करीब सब घरों में हो आया हूँ, परन्तु बंगाली स्त्री तो दूर की बात, बंगाली पुरुष का चेहरा तक भी नज़र नहीं आया। साधु-सन्यासियों के लिए कहीं रोक-टोक नहीं। भीतर प्रवेश करते ही वह स्त्री मेरी ओर देखने लगी। उसका मुँह मैं आज भी याद कर सकता हूँ। इसका कारण यह है कि दस-ग्यारह वर्ष की लड़की की ऑंखों में इतनी करुण, इतनी मलिन-उदास दृष्टि और कहीं कभी देखी है, ऐसा मुझे याद नहीं आता। उसके मुँह से, उसके होठों से, उसकी ऑंखों से-उसके सर्वांग से मानो दु:ख और निराशा फूटी पड़ती थी। मैंने एकबारगी बँगला में कहा, “कुछ भिक्षा देना, माँ।” पहले तो वह कुछ न बोली। इसके बाद उसके होंठ एक-दो बार काँपकर फूल उठे और वह भर-भराकर रो उठी।

मैं मन ही मन कुछ लजाकर रह गया। क्योंकि, सामने कोई न था तो भी, पास के घर में से बिहारी औरतों की बातचीत सुनाई पड़ रही थी। उनमें से यदि कोई एकाएक बाहर आकर इस अवस्था में हम दोनों को देख ले, तो वह क्या सोचेगी, क्या कहेगी यह कुछ भी मैं न सोच सका। खड़ा रहूँ, या प्रस्थान कर जाऊँ, यह निश्चय कर सकने के पूर्व ही उस लड़की ने रोते-रोते एक साँस में ही हजार प्रश्न पूछ डाले, “तुम कहाँ से आ रहे हो? कहाँ रहते हो? तुम्हारा घर क्या वर्ध्दमान जिले में है? तुम वहाँ कब जाओगे? तुम्हें क्या राजापुर मालूम है? वहाँ के गौरी तिवारी को चीन्हते हो?”

मैं बोला, “तुम्हारा घर क्या वर्ध्दमान जिले के राजापुर में है?”

उस लड़की ने हाथों से ऑंखों का जल पोंछते हुए कहा, “हाँ, मेरे पिता का नाम गौरी तिवारी है और भाई का नाम रामलाल तिवारी है। उन्हें क्या तुम चीन्हते हो? तीन महीने हुए मैं ससुराल आईं हूँ, अभी तक एक भी चिट्ठी मुझे नहीं मिली- पिता, भाई, माँ गिरिबाला और बाबू कैसे हैं, कुछ भी नहीं जानती। वह जो पीपल का वृक्ष है- उसके नीचे मेरी बहिन की ससुराल का मकान है। उस सोमवार को जीजी गले में फाँसी लगाकर मर गयी- पर वे लोग कहते हैं कि- नहीं, वे हैजे से मरी हैं।”

मैं विस्मय के मारे हतबुद्धि-सा हो गया। यह क्या बात है? ये लोग, देखता हूँ कि पूरे हिन्दुस्तानी हैं; परन्तु, लड़की एकबारगी शुद्ध बंगालिन है। इतनी दूर, इन घरों में, इन लड़कियों की ससुरालें क्योंकर हुई और इनके पति, सास-ससुर आदि यहाँ क्या करने आए!

वह बोली, “जीजी राजापुर जाने के लिए रात-दिन रोती थीं, खाती नहीं थीं, सोती नहीं थीं। इसीलिए उनके बाल धन्नी से बाँधकर उन्हें सारे दिन और सारी रात खड़ा कर रक्खा था। इसीलिए गले में रस्सी डालकर मर गयी।”

मैंने पूछा, “तुम्हारे भी सास-ससुर क्या हिन्दुस्तानी हैं?”

उस लड़की ने फिर एक बार रोकर कहा, “हाँ। मैं उन लोगों की बातचीत कुछ भी नहीं समझ पाती, उन लोगों का खाना मैं मुँह में नहीं डाल सकती- मैं तो दिन-रात रोया करती हूँ। परन्तु, पिता न तो हमें चिट्ठी ही लिखते हैं और न लिवा ही ले जाते हैं।”

मैंने पूछा, “अच्छा, तुम्हारे पिता ने तुम्हें इतनी दूर ब्याहा ही क्यों?”

लड़की बोली, “हम लोग तिवारी जो हैं। हमारी जाति के ब्याह-योग्य लड़के उस देश में तो मिलते नहीं।”

“तुम्हें क्या वे मारते-पीटते भी हैं?”

“और नहीं तो क्या? यह देखो न!” इतना कहकर उस लड़की ने भुजाओं में, पीठ के ऊपर, मार के निशान दिखाए और फफक-फफककर रोते हुए कहा, “मैं जीजी की तरह गले में फाँसी लगाकर मर जाऊँगी।”

उसका रोना देखकर मेरे भी नेत्र सजल हो उठे और प्रश्नोत्तर या भीख की अपेक्षा किये बगैर ही मैं बाहर हो गया। किन्तु, वह लड़की मेरे पीछे-पीछे चली आई और कहने लगी, “मेरे पिता के पास जाकर तुम कहोगे न? वे मुझे यहाँ से एक दफा ले जाँय, नहीं तो मैं-” किसी तरह थोड़ा-सा सिर हिलाकर स्वीकार करके तेज चाल से अदृश्य हो गया। उस लड़की का हृदयभेदी आवेदन मेरे दोनों कानों में गूँजने लगा।

रास्ते के मोड़ के ऊपर ही एक बनिये की दुकान थी। प्रवेश करते ही दुकानदार ने आदर के साथ मेरी अभ्यर्थना की। खाद्य द्रव्य की भीख न माँगकर जब मैं एक चिट्ठी लिखने का कागज और कलम-दावात माँग बैठा, तब उसने आश्चर्य तो किया, परन्तु इन्कार नहीं किया। उसी जगह बैठकर मैंने गौरी तिवारी के नाम पर एक पत्र लिखकर डाल दिया। समस्त विवरण विवृत करने के बाद अन्त में यह बात लिखना भी मैं नहीं भूला कि लड़की की बहिन हाल में ही फाँसी लगाकर मर गयी है और वह खुद भी, मार-पीट, अत्याचार सहन न कर सकने के कारण उसी पथ पर जाने का संकल्प कर चुकी है। तुम खुद आकर कुछ उपाय न करोगे तो क्या हो जायेगा, सो कहा नहीं जा सकता। बहुत सम्भव है कि तुम्हारी चिट्ठी-पत्री ये लोग तुम्हारी लड़की को न देते हों। उस पर ठिकाना लिखा, वर्दवान जिले में राजापुर ग्राम। मालूम नहीं कि वह पत्र गौरी तिवारी को पहुँचा या नहीं; और पहुँचा भी, तो उसने कुछ किया या नहीं। परन्तु वह घटना मेरे मन पर इस तरह मुद्रित हो गयी है कि, इतने समय बाद भी, पूरी तरह याद बनी हुई है; तथा इस आदर्श हिन्दू समाज के सूक्ष्माति-सूक्ष्म जाति-भेद के विरुद्ध एक विद्रोह का भाव आज भी मेरे मन से नहीं जाता।

सम्भव है, यह जाति-भेद का सिद्धान्त बहुत ही अच्छा हो; जब कि इसी उपाय से सनातन हिन्दू जाति आज तक बची हुई है, तब इसकी प्रचण्ड उपकारिता के सम्बन्ध संशय करने के लिए या प्रश्न करने के लिए और कुछ शेष नहीं रहता। कहीं कोई दो बदनसीब लड़कियाँ दु:ख न सह सकने के कारण गले में फाँसी लगाकर मर जाँयगी, इस डर से इसका कठोर बन्धन बिन्दुमात्र शिथिल करने की कल्पना करना भी पागलपन है। किन्तु उस लड़की का रोना जो मनुष्य अपनी ऑंखों देख आया है उसके लिए यह साध्य् नहीं हो सकता कि वह इस प्रश्न को अपने पास में आने से रोक सके कि किसी तरह टिके रहना- अपना अस्तित्व मात्र बनाए रखना ही क्या जीवन की चरम सार्थकता है? इस तरह की तो बहुत-सी जातियाँ अपना अस्तित्व बनाए हुए मौजूद हैं। कोरकू हैं, कोल, भील-संथाल हैं, प्रशान्त महासागर के अनेक छोटे-मोटे द्वीपों की अनेक छोटी-मोटी जातियों की मनुष्य सृष्टि शुरू से अभी तक वैसी ही बनी हुई हैं। अफ्रीका में हैं, अमेरिका में हैं; उन जातियों में भी इस तरह के सब कठोर सामाजिक आईन-कानून मौजूद हैं जिन्हें सुनकर शरीर का रक्त पानी हो जाता है। उम्र के लिहाज से वे जातियाँ यूरोप की अनेक जातियों के अति वृद्ध पितामहों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं, और हमसे भी अधिक पुरातन हैं। किन्तु इसलिए ये जातियाँ हमारी अपेक्षा सामाजिक आचार-व्यवहार में श्रेष्ठ हैं, ऐसा अद्भुत संशय, मैं समझता हूँ, किसी के मन में न उठता होगा। सामाजिक समस्याएँ झुण्ड बाँधकर सामने नहीं आतीं। यों ही एकाध क्वाचित् कदाचित् ही आविर्भूत होती है। अपनी दोनों बंगाली लड़कियों को हिन्दुस्तानियों के घर ब्याहते समय गौरी तिवारी के मन में शायद इस तरह का प्रश्न आया था। किन्तु, वह बेचारा इस दुरुह प्रश्न से छुटकारा पाने का कोई रास्ता न खोज सकने के कारण ही अन्त में, सामाजिक यूपकाठ के ऊपर दोनों कन्याओं का बलिदान देने के लिए बाध्यन हुआ था। जो समाज इन दोनों निरुपाय क्षुप्र बालिकाओं के लिए भी स्थान न दे सका, जो समाज अपने को इतना-सा भी उदार बनाने की शक्ति नहीं रखता, उस लँगड़े निर्जीव समाज के लिए अपने मन में मैं किंचित्-मात्र भी गौरव का अनुभव नहीं कर सका। कहीं किसी एक बड़े भारी लेखक के लेख में पढ़ा था कि हमारे समाज ने जिस एक बड़े सामाजिक प्रश्न का उत्तर जगत के सामने 'जाति-भेद' के रूप में उपस्थित किया है, उसका अन्तिम फैसला आज तक भी नहीं हुआ है। ऐसा ही कुछ उसमें कहा गया था। किन्तु उस समस्त युक्तिहीन उच्छ्वास का उत्तर देने की भी मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। 'हुआ नहीं है' और 'होगा नहीं' ऐसा प्रबल कण्ठ से घोषित करके जो लोग अपने ही प्रश्न के उत्तर को खुद ही दबा देते हैं उनको जवाब देने की भी प्रवृत्ति नहीं होती। खैर, जाने दो।

दुकान से उठकर और ढूँढ़-खोजकर डाक-बक्स में उस बैरंग पत्र को डालकर जब मैं अपने डेरे पर आ पहुँचा, तब मेरे अन्यान्य सहयोगी आटा, दाल आदि संग्रह करके लौटे न थे।

मैंने देखा कि 'साधु-बाबा' आज मानो कुछ खीझे हुए हैं। कारण भी उन्होंने स्वयं प्रकट कर दिया; बोले, “यह गाँव साधु-सन्यासियों के प्रति उतना अनुरक्त नहीं है, सेवादि की व्यवस्था भी वैसी सन्तोषजनक नहीं करता; इसलिए कल ही इस स्थान का त्याग कर देना होगा!” 'जो आज्ञा' कहकर मैंने उसी क्षण उसका अनुमोदन कर दिया। मन के भीतर पटना देखने का जो प्रबल कुतूहल छिपा था, अपने पास मैं उसे और अधिक ढँककर न रख सका।

सिवाय इसके, बिहार के गाँव में किसी तरह का आकर्षण भी ढूँढे नहीं मिलता था। उसके पहले मैं बंगाल के अनेक गाँवों में विचरण कर चुका हूँ, किन्तु, उनके साथ इनकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती। नर-नारी, पेड़-पत्ते, जलवायु- कोई भी चीज़ अपनी-सी नहीं मालूम होती थीं। सारा मन सुबह से लेकर रात्रिपर्यन्त केवल 'भागूँ-भागूँ' किया करता था।

संध्याक के समय मुहल्ले से उस तरह झाँझ-करताल के साथ कीर्तन का सुर कानों में नहीं आता। देव-मन्दिरों में आरती के काँसे के घण्टे आदि भी उस तरह का गम्भीर मधुर शब्द नहीं करते। इस देश की स्त्रियाँ शंखों को भी वैसी मीठी तरह से बजाना नहीं जानतीं, तब यहाँ मनुष्य किस सुख के लिए रहते हैं? और मन ही मन ऐसा लगने लगा कि यदि इन सब गाँवों में मैं न आ पड़ा होता तो अपने गाँवों का मूल्य किसी दिन भी इस तरह न जान पाता। हमारे यहाँ के पानी में काई भरी रहती है, हवा में मलेरिया है, प्राय: सभी मनुष्यों के पेट में पिलही बढ़ी हुई है, घर-घर मुकदमे-मामले हुआ करते हैं, महल्ले महल्ले में दलबन्दियाँ हैं; सो सब रहने दो, परन्तु फिर भी उसके बीच भी कितना रस, कितनी तृप्ति थी। इस समय मानो, उसके विषय में कुछ न जानते हुए भी मैं सब कुछ जानने लगा।

दूसरे दिन तम्बू उखाड़ कर यात्रा शुरू कर दी गयी; और साधु बाबा यथा शक्ति भारद्वाज मुनि के आश्रम की ओर दलबल-सहित अग्रसर होने लगे। किन्तु चाहे रास्ता सीधा पड़ेगा इस खयाल से हो, अथवा मुनि ने मेरे मन की बात जान ली- इस कारण से हो, पटना के दस कोस के भीतर उन्होंने और फिर कहीं तम्बू नहीं गाड़ा। मन में एक वासना थी। खैर उसे इस समय रहने दो। पाप-ताप मैंने बहुत से किये हैं; साधु-संग भी कुछ दिन करके पवित्र हो लूँ।

एक दिन संध्यात के कुछ पहले जिस जगह हमारा डेरा पड़ा, उसका नाम था छोटी बगिया। आरा स्टेशन से यह स्थान आठ कोस दूर है। इस गाँव के एक प्रसिद्ध बंगाली सज्जन से मेरा परिचय हो गया था। उनकी सदाशयता का यहाँ कुछ वर्णन करूँगा। उनके पैतृक नाम को गुप्त रखकर 'राम बाबू' कहना ही अच्छा है, क्योंकि अब तक वे जीवित हैं। और बाद में, अन्यत्र यद्यपि उनसे मेरा साक्षात्कार हुआ था, फिर भी वे मुझे पहिचान नहीं सके थे। इसमें कुछ अचरज भी नहीं है। परन्तु उनका स्वभाव मैं जानता हूँ। गुप्त रूप से उन्होंने जो सत्कार्य किये हैं उनका प्रकाश्य रूप में उल्लेख किये जाने पर वे विनय से संकुचित हो उठेंगे, यह मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। इसलिए उनका नाम है 'राम बाबू'। किस तरह राम बाबू उस गाँव में आए थे और किस तरह उन्होंने जमा-जमीन संग्रह करके खेती-बारी की थी, सो मुझे नहीं मालूम। इतना ही मैं जानता हूँ कि उन्होंने दूसरी दफा विवाह किया था और तीन-चार पुत्र-कन्याओं के साथ वे वहाँ सुख से वास करते थे।

सुबह के समय सुना गया कि इन्हीं छोटी बगिया और बड़ी बगिया नामक गाँवों में उस समय शीतला ने महामारी के रूप में दर्शन दिए हैं। देखा गया है कि गाँव के दु:समय में ही साधु सन्यासियों की सेवा विशेष सन्तोषजनक होती है। इसीलिए साधु बाबा ने अविचलित चित्त से वहाँ पर अवस्थान करने का संकल्प कर लिया।

अच्छी बात है। सन्यासी जीवन के सम्बन्ध में यहाँ पर मैं एक बात कह देना चाहता हूँ। जीवन में इनमें से मैंने अनेकों को देखा है। चारेक दफा मैं उनके साथ ऐसे ही घनिष्ठ भाव से घुल-मिलकर भी रहा हूँ। दोष जो उनमें हैं सो हैं ही, मैं तो गुणों की बात ही कहूँगा। 'केवल पेट के लिए साधुजी' तो आप में से अनेक जानते होंगे, परन्तु इन लोगों में भी ये दो दोष मेरी नजर नहीं आए, और मेरी नजर भी कुछ बहुत स्थूल नहीं है। स्त्रियों के सम्बन्ध में इन लोगों का संयम कहो या उत्साह की स्वल्पता कहो- खूब अधिक है, और प्राणों का भय भी इन लोगों में बिल्कुिल ही कम होता है। 'यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्' तो है, परन्तु क्या करने से 'बहुदिनं जीवेत्' यह खयाल नहीं होता। हमारे साधु बाबा भी ऐसे ही थे! पहली वस्तु के याने 'सुख' के लिए दूसरी अर्थात् 'जीवेत्' को उन्होंने तुच्छ कर दिया था!”

थोड़ी-सी धूनी की राख और दो बूँद कमण्डलु के जल के बदले में जो सब वस्तुएँ दनादन डेरे में आने लगीं वह, क्या तो सन्यासी और क्या गृहस्थ, किसी के लिए विरक्ति का कारण नहीं हो सकतीं!

राम बाबू स्त्री सहित रोते हुए आए। चार रोज के बुखार के बाद आज सुबह बड़े लड़के को शीतला दिखाई पड़ी हैं और छोटा बच्चा कल रात से ज्वर में बेहोश पड़ा है। यह जानकर कि वे बंगाली हैं मैंने स्वयं उनके निकट जाकर उनसे परिचय किया।

इसके बाद कथा के सिलसिले में मैं महीने-भर का विच्छेद कर देना चाहता हूँ। क्योंकि किस तरह यह परिचय घनिष्ठ होता गया, किस तरह दोनों बच्चे चंगे हुए- इसकी बहुत लम्बी कथा है। कहते-कहते मेरा भी धीरज छूट जायेगा, फिर पाठकों की बात तो दूर रही। फिर भी, बीच की एक बात कहे देता हूँ। करीब पन्द्रह दिन बाद, जब कि रोग का प्रकोप बहुत बढ़ा-चढ़ा था, साधुजी ने अपना डेरा उठाने का प्रस्ताव किया। राम बाबू की स्त्री रोकर बोल उठीं, “सन्यासी भइया, तुम तो सचमुच के सन्यासी नहीं हो- तुम्हारे शरीर में तो दया-माया है। नवीन और जीवन को यदि तुम छोड़कर चले आओगे, तो वे कभी नहीं बचेंगे। कहाँ, जाओ देखूँ, कैसे जाते हो?” इतना कहकर उसने मेरे पैर पकड़ लिये। मेरी ऑंखों से भी ऑंसू निकल पड़े। राम बाबू भी स्त्री की प्रार्थना में योग देकर अनुनय-विनय करने लगे। इसलिए मैं नहीं जा सका। साधु बाबा से मैं बोला; “प्रभो, आप अग्रसर हूजिए, मैं रास्ते के बीच में, नहीं तो प्रयाग में पहुँचकर, आपकी पदधूलि अवश्य ही माथे चढ़ा सकूँगा, इसमें कोई सन्देह है।” प्रभु कुछ क्षुण्ण हुए। अन्त में बार-बार अनुरोध करके, अकारण कहीं विलम्ब न लगा देना, इस सम्बन्ध में बार-बार सावधान करके, वे सदल-बल यात्रा कर गये। मैं राम बाबू के घर में ही रह गया। इन थोड़े से दिनों के बीच में ही मैं इस तरह प्रभु का सबसे अधिक स्नेह-पात्र हो गया था कि यदि और टिका रहता तो उनकी सन्यास-लीला के अवसान पर, उत्तराधिकार-सूत्र से मैं उस टट्टू और दोनों ऊँटों पर दखल प्राप्त कर सकता, इसमें कोई सन्देह नहीं रह गया था खैर जाने दो- हाथ की लक्ष्मी पैर से ठेलकर, गयी बात को लेकर, परिताप करने में अब कोई लाभ नहीं है।

दोनों लड़के चंगे हो गये। महामारी इस दफे सचमुच ही महामारी के रूप में दिखाई दी। वह कैसा व्यापार था जिसने अपनी ऑंखों नहीं देखा वह किसी का लिखा हुआ पढ़कर, कहानी सुनाकर या कल्पना करके हृदयंगम कर सके यह असम्भव है। अतएव इस असम्भव कार्य को सम्भव करने का प्रयास मैं नहीं करूँगा। लोगों ने भागना शुरू किया; इसमें और कोई विवेक विचार नहीं रहा! जिस घर में मनुष्य का चिह्न दिखाई देता था उसमें झाँककर देखने से नजर आता था कि केवल माँ अपनी पीड़ित सन्तान को आगे लिये बैठी है।

राम बाबू ने भी अपनी घरू बैलगाड़ी में माल-असबाब लाद दिया। वे तो कई दिन पहले ही ऐसा करना चाहते थे, किन्तु, बाध्यड़ होकर ही न कर सके। पाँच-छ: दिन पहले से ही मेरी सारी देह एक ऐसे बुरे आलस्य से मर गयी थी कि कुछ भी भला नहीं लगता था। मालूम होता था कि रात्रि-जागरण और परिश्रम के कारण ही ऐसा हो रहा है। उस दिन सुबह से ही सिर दुखने लगा। बिल्कुरल अरुचि होते हुए भी दोपहर के समय जो कुछ खाया शाम के वक्त उसे कै कर दिया। रात के 9-10 बजे मालूम हुआ कि बुखार चढ़ आया है। उस दिन सारी रात, उन लोगों का उद्योग आयोजन चल रहा था, सभी जाग रहे थे। बहुत रात बीते राम बाबू की स्त्री बाहर से मेरे कमरे के भीतर झाँककर बोली, “सन्यासी भइया, तुम क्या हमारे साथ ही आरा तक नहीं चलोगे?”

मैं बोला, “जरूर चलूँगा। किन्तु तुम्हारी गाड़ी में मुझे थोड़ी-सी जगह देनी होगी।”

बहिन ने उत्सुक होकर प्रश्न किया, “सो कैसे सन्यासी भइया? गाड़ियाँ तो दो से अधिक नहीं मिल सकीं। उनमें तो हम लोगों भर के लिए भी जगह नहीं है।”

मैंने कहा, “मुझमें तो चलने की ताकत नहीं है बहिन, सुबह से ही खूब बुखार चढ़ा है।”

“बुखार! कहते क्या हो?” इतना कहकर उत्तर की भी अपेक्षा न करके मेरी नूतन बहिन अपना मुँह श्याम करके चली गयी।

कितनी देर तक मैं सोता रहा, सो नहीं कह सकता। जागकर देखा तो दिन चढ़ आया है। मकान के भीतर के सभी कमरों में ताला लगा हुआ है, मनुष्य प्राणी का नाम भी नहीं है।

बाहर के जिस कमरे में मैं था उसके सामने से ही इस गाँव का कच्चा रास्ता आरा स्टेशन तक गया है। इस रास्ते पर से प्रतिदिन कम से कम 5-6 बैलगाड़ियाँ, मृत्यु-भीत नर-नारियों का माल-असबाब लादकर, स्टेशन जाया करती थीं। दिन-भर अनेक प्रयत्न करने के बाद में शाम को इनमें से एक में स्थान पाकर जा बैठा। जिन वृद्ध बिहारी सज्जन ने दया करके मुझे अपने साथ ले लिया था उन्होंने बड़े तड़के ही मुझे स्टेशन के पास एक वृक्ष के नीचे उतार दिया। उस समय बैठने का भी मुझमें सामर्थ्य नहीं था। वहीं मैं लेट गया। पास में ही एक टीन का परित्यक्त शेड था। पहले वह मुसाफिरखाने के काम में आता था; किन्तु, वर्तमान समय में झड़-बादल के दिन गाय-बछड़ों के उपयोग में आने के सिवाय, और किसी काम में नहीं आता था। ये वृद्ध सज्जन स्टेशन से एक बंगाली युवक को बुला लाए। मैं उसी की दया से, कई एक कुलियों की सहायता से, उस शेड के नीचे लाया गया।

मेरा बड़ा दुर्भाग्य है कि मैं उस युवक का कोई परिचय नहीं दे सकता, क्योंकि, मैं उस समय उसकी कुछ भी पूछताछ नहीं कर सका था। पाँच-छ: महीने बाद, पूछने का जब सुयोग और शक्ति मिली तब, मालूम हुआ कि शीतला के रोग से पीड़ित होकर इस बीच में ही वह इस लोक से कूच कर गया है। उसके सम्बन्ध में पूछने पर इतना ही मालूम हो सका कि वह पूर्वीय बंगाल का था और पन्द्रह रुपये महीने वेतन पर स्टेशन में नौकरी करता था। कुछ देर ठहरकर अपना सैकड़ों जगह से फटा हुआ बिछौना लाकर उसने हाजिर किया और वह बार-बार कहने लगा कि मैं अपने हाथ से पकाकर खाता हूँ और दूसरे के घर रहता हूँ। दोपहर के समय एक कटोरा गरम दूध लाकर उसने जबरन पिलाकर कहा, “डरने की बात नहीं है, आप अच्छे हो जाँयगे। परन्तु आत्मीय बन्धु-बान्धव आदि किसी को भी यदि खबर देनी हो तो, ठिकाना बताने पर, मैं तार दे सकता हूँ।”

उस समय मैं खूब होश में था। इसलिए यह भी अच्छी तरह समझा था कि ऐसी अवस्था बहुत देर तक नहीं रहेगी। इस तरह का ज्वर यदि और भी 5-6 घण्टे स्थायी बना रहा तो होश अवश्य गँवाना पड़ेगा। अतएव, जो कुछ करना है, वह इतने समय के भीतर न करने पर, फिर नहीं किया जायेगा।

सो तो ठीक, परन्तु खबर देने के प्रस्ताव पर मैं सोच-विचार में पड़ गया। क्यों, सो खोलकर बताने की जरूरत नहीं। परन्तु सोचा, गरीब का पैसा टेलीग्राम में अपव्यय करने से लाभ ही क्या है?

शाम के बाद वह भद्र पुरुष अपनी डयूटी से अवकाश लेकर एक घड़ा पानी और एक किरासिन की डिब्बी लेकर उपस्थित हुआ, उस समय ज्वर की यन्त्रणा से मस्तक क्रमश: बिगड़ रहा था। उसे पास में बुलाकर मैंने कहा, “जब तक मुझे होश है तब तक बीच-बीच में आकर देख जाना; इसके बाद जो होना हो सो हो, आप और कोई कष्ट न करना।”

वह अत्यन्त मुँह-चोर प्रकृति का भद्र पुरुष था। बात बनाकर कहने की उसमें क्षमता नहीं थी। जवाब में केवल 'नहीं' कहकर ही वह चुप हो रहा। मैंने कहा, “आपने चाहा था कि किसी को खबर करा दूँ। मैं सन्यासी आदमी हूँ, वास्तव में मेरा कोई भी नहीं। फिर भी पटने में प्यारी बाई के ठिकाने पर यदि एक पोस्ट कार्ड लिख दोगे कि श्रीकान्त आरा स्टेशन के बाहर एक टीनशेड के नीचे मरणापन्न होकर पड़ा है तो...”

वह युवक अत्यन्त व्यस्त होकर बोल उठा, “मैं अभी दिए देता हूँ।” चिट्ठी और टेलीग्राम दोनों ही भेजे देता हूँ”, इतना कहकर वह उठकर चला गया। मैंने मन ही मन कहा, 'भगवान, वह खबर पा जाय!'

होश आने पर पहले तो मैं अपनी अवस्था अच्छी तरह समझ भी न सका। मस्तक पर हाथ ले जाकर अनुभव किया कि यह तो आईस-बेग है। ऑंखें मिलमिलाकर देखा कि मकान के भीतर एक खाट पर पड़ा हूँ। सामने स्टूल के ऊपर एक दीपक के पास दो-तीन दवा की शीशियाँ और उसके पास एक रस्सी की खाट पर कोई मनुष्य लाल चेक का रैपर शरीर पर लपेटे हुए सो रहा है। बहुत देर तक मैं कुछ भी याद न कर सका। इसके बाद, एक-एक करके, जान पड़ने लगा, मानो नींद में कितने ही स्वप्न देखे हैं। अनेक लोगों का आना-जाना उठाकर मुझे डोली में डालना, मस्तक उठाकर दवाई पिलाना, ऐसे कितने ही व्यापार दिखाई पड़े।

कुछ देर बाद, जब वह मनुष्य उठकर बैठ गया तब, देखा कि कोई बंगाली सज्जन हैं, उम्र; अठारह-उन्नीस से अधिक नहीं। उस समय सिरहाने के निकट से मृदु-स्वर में जिसने उसको सम्बोधन किया उसका स्वर मैंने पहिचान लिया।

प्यारी ने अति मृदु कण्ठ से पुकारा, “बंकू, बरफ को एक बार और बदल क्यों नहीं दिया बेटा?”

लड़का बोला, “बदले देता हूँ, तुम थोड़ा-सा सो लो न माँ। डॉक्टर बाबू जब कह गये हैं कि शीतला नहीं है, तब डरने की कोई बात नहीं है माँ।”

प्यारी बोली, “अरे भइया, डॉक्टर के कहने से, कि डर की कोई बात नहीं हैं, औरतों का भय कहीं जाता है? तुझे चिन्ता करने की जरूरत नहीं है बंकू, तू तो बरफ बदल कर सो जा- फिर रात को मत जागना।”

बंकू ने आकर बरफ बदल दिया और लौटकर वह फिर उसी खटिया पर जा पड़ा। थोड़ी ही देर बाद जब उसकी नाक बजने लगी तब मैंने धीरे से पुकारा “प्यारी!”

प्यारी ने मुँह के ऊपर झुक पड़कर सिर पर के जलबिन्दु ऑंचल से पोंछते हुए कहा, “मुझे क्या तुम चीन्ह सकते हो? अब कैसे हो? कल...”

“अच्छा हूँ। कब आयीं? यह क्या आरा है?”

“हाँ आरा ही है। कल हम लोग घर चलेंगे।”

“कहाँ?”

“पटने। सिवाय अपने घर ले जाने के, अभी क्या और कहीं, मैं तुम्हें छोड़ जा सकती हँ?”

“यह लड़का कौन है, राजलक्ष्मी?”

“मेरी सौत का लड़का है। किन्तु, बंकू मेरे पेट का लड़का-सा ही है। मेरे पास रहकर ही पटना कॉलेज में पढ़ता है। आज अब और बात मत करो। सो जाओ- कल सब कहूँगी।” इतना कहकर उसने मेरे मुँह पर हथेली रखकर मेरा मुँह बन्द कर दिया।

मैं हाथ बढ़ाकर राजलक्ष्मी के दाहिने हाथ को मुट्टी में लेकर करवट बदल कर सो रहा।

जिस ज्वर से पीड़ित होकर मैं बेहोश हो शय्यागत हो गया था वह शीतला का नहीं था, कुछ और ही था। डॉक्टरी शास्त्र में निश्चय से ही उसका कोई बड़ा भारी कठिन नाम था, परन्तु मुझे वह याद नहीं रहा। खबर पाकर प्यारी, अपने लड़के, दो नौकर और दासी को लेकर, आ उपस्थित हुई। उसी दिन एक ठहरने का स्थान किराये पर लेकर मुझे उसमें स्थानान्तरित कर दिया और शहर के भले-बुरे सब चिकित्सकों को बुलाकर वहाँ इकट्ठा कर लिया। अच्छा ही किया। नहीं तो, और कोई नुकसान चाहे भले ही न होता, परन्तु 'भारतवर्ष' के¹ पाठक-पाठिकाओं के धैर्य की महिमा तो संसार में अविदित ही रह जाती!

सुबह प्यारी ने कहा, “बंकू, और देरी मत कर बेटा, इसी समय एक सेकण्ड क्लास का डब्बा रिझर्व करा आ। मैं एक क्षण भी इन्हें यहाँ रखने का साहस नहीं कर सकती।”

बंकू की अतृप्त निद्रा उस समय भी उसके दोनों नेत्रों में भर रही थी; उसने उन्हें मूँदे ही मूँदे अव्यक्त स्वर में जवाब दिया, “तुम पगला गयी हो माँ ऐसी अवस्था में क्या रोगी को यहाँ से वहाँ ले जाया जा सकता है?”

प्यारी ने कुछ हँसकर कहा, “पहले तू उठ, ऑंख-मुँह पर जल डाल, देखूँ इसके बाद यहाँ-वहाँ ले जाने की बात समझ ली जावेगी। राजा बेटा मेरे, उठ!”

बंकू और कोई उपाय न देख, शय्या त्याग, मुँह हाथ धो, कपड़े बदल स्टेशन चला गया। उस समय भी बहुत जल्दी थी- घर में और कोई नहीं था! धीरे-धीरे पुकारा, “प्यारी!” मेरे सिरहाने की ओर एक खटिया सटकर बिछी हुई थी। उसी पर थकावट के कारण, शायद इसी बीच, वह कुछ ऑंखें मूँदकर लेट गयी थी। चटपट उठ बैठी और मेरे मुँह पर झुक गयी। कोमल कण्ठ से उसने पूछा, “नींद खुल गयी?”

“मैं तो जाग ही रहा हूँ।” प्यारी ने उत्कण्ठित यत्न के साथ मेरे सिर और कपाल पर हाथ फेरते-फेरते कहा, “ज्वर तो इस समय बहुत कम है। ऑंखें मूँद कर थोड़ा-सा सोने की चेष्टा क्यों नहीं करते?”

1 श्रीकान्त का यह भ्रमण-वृत्तान्त पहले बंगाल के प्रसिद्ध मासिक पत्र 'भारतवर्ष' में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुआ था।

“सो तो मैं बराबर ही करता हूँ प्यारी, आज ज्वर को कितने दिन हुए?”

“तेरह दिन” कहकर उसने बड़ी बूढ़ी पुरखिन की तरह गम्भीर भाव से कहा, “देखो, लड़के-बालों के सामने मुझे यह नाम लेकर मत पुकारा करो। बहुत दिनों तक 'लक्ष्मी' कहकर पुकारा किये हो, वही नाम लेकर क्यों नहीं पुकारते?”

दो दिन से मैं खूब होश में था। मुझे भी सब बातें याद आ गयी थीं। मैंने कहा, “अच्छा।” इसके बाद, जिस बात के कहने के लिए बुलाया था उसे मन ही मन अच्छी तरह सजाकर कहा, “मुझे ले जाने की चेष्टा कर रही हो, किन्तु, मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिए हैं, अब और नहीं देना चाहता।”

“तो फिर क्या करना चाहते हो?”

“मैं सोचता हूँ, अब जैसा मैं हूँ, उससे जान पड़ता है कि तीन-चार दिन में ही, अच्छा हो जाऊँगा! तुम लोग चाहे तो इतने दिन और ठहर कर घर चले जाओ।”

“तब तुम क्या करोगे, सुनूँ तो?”

“जो कुछ होना होगा सो हो जायेगा।”

“सो हो जायेगा” कहकर प्यारी कुछ हँस दी। इसके बाद सामने आकर खाट पर एक ओर बैठकर, मेरे मुँह की ओर देखकर, क्षण-भर चुप रहकर फिर कुछ हँसकर बोली, “तीन-चार दिन में तो नहीं, दस-बारह दिन में यह रोग चला जायेगा, यह मैं जानती हूँ; परन्तु असली रोग कितने दिनों में दूर होगा- सो क्या मुझे बता सकते हो?”

“असली रोग और क्या?”

प्यारी ने कहा, “सोचोगे कुछ, कहोगे कुछ, और-करोगे कुछ, हमेशा से तुम्हें यही एक रोग है। तुम जानते हो कि एक महीने के पहले मैं तुम्हें ऑंखों की ओट न कर सकूँगी- फिर भी कहोगे 'तुम्हें कष्ट दिया, तुम जाओ'; अरे ओ दयामय! मेरा यदि तुम्हें इतना अधिक दर्द है तो, और चाहे जो होओ पर- सन्यासी तो तुम नहीं हो- सन्यासी बनकर यह क्या हंगामा खड़ा किया है! आकर देखती हूँ, तो जमीन पर फटी कथरी पर घोर बेहोशी में पड़े हो, धूल-कीचड़ में जटाएँ सन गयी हैं, सारे अंग में रुद्राक्ष की माला है और दोनों हाथों में पीतल के कड़े हैं! मैया री मैया! चेहरा देखकर रोए बिना न रह सकी!” इतना कहते-कहते उमड़ा हुआ अश्रुजल उसकी दोनों ऑंखों में झलक आया। चटपट उसे हाथ से पोंछकर वह बोली, “बंकू बोला, ये कौन हैं माँ? मन ही मन बोली- तू बच्चा है, तेरे आगे वह बात क्या कहूँ भइया! ओह, वह दिन भी कैसी विपत्ति का था, भैया री, कैसी शुभ घड़ी पाठशाला में हमारी चार ऑंखें हुई थीं! जो दु:ख तुमने मुझे दिया है, उतना दु:ख दुनिया-भर में किसी ने कभी किसी को नहीं दिया होगा- और न देगा ही। शहर में शीतला दिखाई दी हैं-सबको लेकर अच्छी भली भाग जा सकूँ तो जान में जान आवे।” इतना कहकर उसने एक दीर्घ श्वास छोड़ा।

उसी रात को आरा छोड़ दिया। एक कम उम्र का डॉक्टर अनेक तरह की औषधियाँ लेकर हम लोगों को पटना तक पहुँचाने के लिए साथ गया।

पटना पहुँचकर बारह-तेरह दिन के भीतर ही एक तरह से मैं चंगा हो गया। एक दिन सुबह अकेला प्यारी के मकान के प्रत्येक कमरे में घूम आया। उसका माल-असबाब देखकर मैं कुछ विस्मित हुआ। मैंने इसके पहले वैसा देखा न हो सो बात नहीं थी। चीजें सब अच्छी और कीमती थीं, यह ठीक है; परन्तु इस मारवाड़ी मुहल्ले के बीच, इन सब धनी और अल्पशिक्षित शौकीन मनुष्यों के संसर्ग में, इतनी साधारण चीजों से वह सन्तुष्ट कैसे रहती थी? इसके पहले मैंने इस तरह के जितने घर द्वार देखे थे इनके साथ कहीं किसी भी अंश में इसकी समानता नहीं थी। उनमें अन्दर घुसते ही विचार होता था कि इनमें मनुष्य क्षण-भर भी रहते कैसे होगा? उन मकानों के झाड़-फानूस, चित्र दिवालगीरी, आईना और ग्लास-केसों में आनन्द के बदले आशंका ही उत्पन्न होती थी- सहज श्वास-प्रश्वास तक के लिए भी, मालूम होता था कि अवकाश न मिलेगा। बहुत से लोगों की बहुविधा कामना-साधना की उपहार-राशि इस तरह ठसाठस एक के ऊपर एक भरी हुई नजर आती थी कि देखते ही ऐसा मालूम होता था कि इन अचेतन वस्तुओं के समान ही उनके अचेतन दाता भी मानो इस मकान के भीतर जरा-सी जगह के लिए ऐसी ही भीड़ करके परस्पर एक दूसरे के साथ ठेलमठेल संघर्ष कर रहे हैं। किन्तु, इस मकान के किसी भी कमरे में आवश्यकीय चीजों के अतिरिक्त एक भी फालतू चीज नज़र नहीं आई। और जो भी चीजें नजर आईं वे स्वयं गृहस्वामिनी के काम के लिए लाई गयी हैं, और उसकी निजी इच्छा और अभिरुचि को लाँघकर, और किसी की भी प्रलुब्ध अभिलाषा से अनधिकार-प्रवेश करके जगह छेके नहीं बैठी हैं। यह बात सहज में ही मालूम हो गयी। और भी एक बात ने मेरी दृष्टि को आकर्षित किया। इतनी सुप्रसिद्ध 'बाईजी' के घर में गाने-बजाने का कहीं कोई आयोजन भी नहीं है। इस कमरे, उस कमरे में घूमता हुआ दूसरी मंजिल के एक कोने के कमरे के सामने आकर मैं खड़ा हो गया। यह बाईजी का खुद का शयन-मन्दिर है, यह उसके भीतर झाँकते ही मालूम हो गया। परन्तु मेरी कल्पना के साथ इसका कितना अन्तर था। जो कुछ सोच रक्खा था, उसमें का कुछ भी नहीं था। मेज सफेद पत्थर की थी, दीवालें दूध की तरह सफेद चमचमा रही थीं। कमरे के एक किनारे एक छोटे से तख्त के ऊपर बिस्तर बिछे थे, एक लकड़ी की अरगनी पर कुछ वस्त्र टँके थे और उसके पीछे एक लोहे की आलमारी थी। और कहीं कुछ नहीं था। जूते पहिने हुए अन्दर प्रवेश करने में भी मानो मुझे एक तरह के संकोच का अनुभव हुआ, उन्हें चौखट के बाहर खोलकर मैंने भीतर प्रवेश किया। मालूम होता है, थकावट के कारण ही उसकी शय्या पर मैं जाकर बैठ गया था। यदि कमरे में और कोई वस्तु बैठने के लिए होती तो मैं उसी पर बैठता। सामने की ओर खुली हुई खिड़की को ढँके हुए एक बड़ा नीम का पेड़ था। उसी में से छन-छनकर हवा आ रही थी। उस ओर देखता हुआ मैं हठात् जैसे कुछ अन्यमनस्क-सा हो गया था। एक मीठी आवाज से चौंककर मैंने देखा, गुन-गुन गाना गाती-गाती प्यारी कमरे में घुस आई है। वह गंगाजी में स्नान करने गयी थी और अब वहाँ से लौटकर अपने कमरे में गीले कपड़े उतारने आई है। उसने इस ओर एक दफा भी नहीं देखा है। उसके सीधे अरगनी के पास जाकर सूखे वस्त्र पर हाथ डालते ही मैंने व्यक्त होकर आवाज दी, “घाट पर कपड़े लेकर क्यों नहीं जातीं?”

प्यारी ने चौंककर हँस दिया। बोली, “ऐं! चोर की तरह मेरे कमरे में घुसे बैठे हो? नहीं नहीं, बैठे रहो, बैठे रहो-अजाओ मत। मैं उस कमरे में से कपड़े बदल आती हूँ।” इतना कहकर वह हलके पैरों गरद की धोती हाथ में लेकर बाहर चली गयी।

पाँचेक मिनट के बाद वह प्रसन्न मुख से लौट आई और हँसकर बोली, “मेरे कमरे में तो कुछ भी नहीं है; तब क्या चुराने आए हो, बोलो तो? मुझे तो नहीं?” मैं बोला, “तुमने क्या मुझे ऐसा अकृतज्ञ समझ रक्खा है? तुमने मेरे लिए इतना किया, और अन्त में तुम्हारी ही चोरी करूँ, मैं इतना लोभी नहीं हूँ।”

प्यारी का मुँह मलीन हो गया। बोलते समय मैंने नहीं सोचा था कि इस बात से उसे व्यथा पहुँचेगी। उसे व्यथा पहुँचाने की न तो मेरी इच्छा ही थी, और न ऐसी इच्छा होना स्वाभाविक ही था। खास तौर से तब जब कि मैंने दो-एक दिन में वहाँ से प्रस्थान करने का संकल्प कर लिया था। बिगड़ी हुई बात को किसी तरह बना लेने की गरज से मैंने जबर्दस्ती हँसकर कहा, “अपनी वस्तु की भी क्या कोई चोरी करने जाता है? तुममें इतनी भी बुद्धि नहीं है?”

किन्तु इतने सहज में उसे भुलाया न जा सका। उसने मलीन मुख से कहा, “तुम्हें और अधिक कृतज्ञ होने की जरूरत नहीं; दया करके तुमने जो उस समय खबर लगा दी, मेरे लिए वही बहुत है।”

उसके शुद्ध स्नात, प्रसन्न हँसते चेहरे को इस धूप से उज्ज्वल प्रभात-काल में ही मैंने म्लान कर दिया, यह देखकर हृदय में एक वेदना सी जाग उठी। उस थोड़ी-सी हँसी के भीतर जो एक माधुर्य था उसके नष्ट होते ही हानि सुस्पष्ट हो उठी। उसे वापिस लौटाने की आशा से मैं उसी क्षण अनुतप्त स्वर में बोल उठा, “लक्ष्मी, तुम्हारे निकट तो कुछ भी छिपा नहीं है- सब कुछ तो जानती हो। तुम वहाँ नहीं गयी होती तो मुझे उस धूल और रेती के ऊपर ही मर जाना पड़ता, कोई उतनी दूर जाकर एक दफा अस्पताल ले जाने की भी चेष्टा न करता। वह जो तुमने पत्र में लिखा था कि “सुख के दिनों में न सही तो दु:ख के दिनों में ही मुझे याद कर लेना” यह बात मुझे मेरी आयु बाकी थी इसीलिए याद आ गयी, यह मैं इस समय अच्छी तरह अनुभव कर रहा हूँ।”

“कर रहे हो?”

“निश्चय से।”

“तो फिर कहो कि मेरे ही लिए तुमने पुन: प्राण पाए हैं?”

“इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है।”

“तो क्या मैं उन पर दावा कर सकती हूँ, बोलो?”

“कर सकती हो। परन्तु मेरे प्राण इतने तुच्छ हैं कि उन पर तुम्हारा लोभ होना ही उचित नहीं है।”

प्यारी ने इतनी देर बाद कुछ हँसकर कहा, “फिर भी गनीमत है कि अपने मूल्य को इतने दिनों में तुमने समझ तो लिया।” किन्तु दूसरे ही क्षण गम्भीर होकर कहा, “दिल्लगी रहने दो, बीमारी तो एक तरह से अच्छी हो गयी, अब जाने की कब सोच रहे हो?”

उसके प्रश्न को अच्छी तरह न समझ सका। मैंने गम्भीर होकर कहा, “कहीं जाने की तो मुझे जल्दी है नहीं। इसलिए यही सोचता हूँ, और भी कुछ दिन ठहर जाऊँ।”

प्यारी बोली, “किन्तु मेरा लड़का आजकल अक्सर बाँकीपुर से आया करता है। बहुत दिन ठहारोगे तो शायद वह कुछ खयाल करने लगे।”

मैंने कहा, “करने दो न। उससे डरकर तो कुछ तुम चलती नहीं? ऐसा आराम छोड़कर यहाँ से शीघ्र ही तो मैं कहीं जाता नहीं।”

प्यारी ने विषण्ण मुख से कहा, “यह भी कहीं हो सकता है?” इतना कहकर वह एकाएक वहाँ से उठकर चल दी।

दूसरे दिन शाम के वक्त मैं अपने कमरे में पश्चिम की तरफ से बरामदे में एक इजीचेअर पर लेटा हुआ सूर्यास्त देख रहा था। इसी समय बंकू आ उपस्थित हुआ। अभी तक उसके साथ अच्छी तरह बातचीत करने का सुयोग नहीं मिला था। एक चेअर पर बैठने का इशारा करके मैं बोला, “बंकू, क्या पढ़ते हो तुम?”

लड़का अत्यन्त सीधा-सादा भलामानुस था। बोला, “गये साल मैंने एन्टे्रन्स पास किया है।”

“तो अब बाँकीपुर कॉलेज में पढ़ते हो?”

“जी हाँ।”

“तुम कितने भाई-बहिन हो?”

“भाई और नहीं हैं। चार बहिनें हैं।”

“उनका ब्याह हो गया?”

“जी हाँ, मैंने ही उन्हें ब्याह दिया है।”

“तुम्हारी अपनी माँ जीती हैं?”

“जी हाँ, वे देश के ही मकान में रहती हैं।”

“तुम्हारी ये माँ, कभी तुम्हारे देश के मकान में गयी हैं?”

“बहुत बार, अभी तो पाँच-छ: ही महीने हुए, आई हैं।”

“इससे देश में कोई गड़बड़ नहीं मचती?”

बंकू कुछ देर चुप रहकर बोला, “मचती रहे हम लोगों को 'जाति से अलग' कर रक्खा है, सो इससे कुछ हम अपनी माँ को छोड़ थोड़े ही सकते हैं? और ऐसी माँ भी कितने लोगों को नसीब होती है!”

मुँह में आया कि पूछूँ, “माँ के ऊपर इतनी भक्ति कैसे हुई?” किन्तु दबा गया।

बंकू कहने लगा, “अच्छा आप ही कहिए, गाने-बजाने में क्या कोई दोष है? हमारी माँ केवल वही करती हैं। कुछ पराई निन्दा, पराई चर्चा तो करती नहीं? बल्कि, गाँव में जो लोग हमारे परम शत्रु हैं उन्हीं के आठ दस लड़कों को पढ़ाई-लिखाई का खर्च देती हैं; शीत काल में कितने ही लोगों को कपड़े देती हैं, कम्बल देती हैं, यह क्या बुरा करती हैं?”

मैंने कहा, “नहीं, वह तो बहुत ही भला काम है।”

बंकू ने उत्साहित होकर कहा, “तब कहिए, हमारे गाँव के समान पाजी गाँव क्या और कोई है? यही देखो न उस वर्ष ईंटें पकाकर हम लोगों ने मकान बनवाया। गाँव में पानी की भयानक तकलीफ देखकर माँ मेरी माँ से बोलीं, जीजी, और कुछ रुपये खर्च करके ईंटें पकाने के भट्ठे की जगह ही एक तालाब ही न बनवा दिया जाय? तीन-चार हजार रुपये खर्च करके तालाब बनवा दिया। घाट भी बँधवा दिया। किन्तु, गाँव के लोगों ने माँ को उस तालाब की प्रतिष्ठा न करने दी। ऐसा बढ़िया पानी- किन्तु कोई पीएगा नहीं, कोई छुएगा नहीं, ऐसे बदजात आदमी हैं। केवल इस ईष्या के मारे सब मरे जाते हैं कि हमारा मकान पक्का बन गया। आप समझे न?”

मैंने अचरज से कहा, “कहते क्या हो जी, पानी का ऐसा दारुण कष्ट भोगा करेंगे, फिर भी ऐसे पानी का व्यवहार न करेंगे?”

बंकू ने जरा-सा हँसकर कहा, “वही तो; किन्तु वह क्या अधिक समय चल सकता है? पहले साल तो डर के मारे किसी ने पानी छुआ नहीं, परन्तु अब छोटी जाति के सभी लोग लेते हैं और पीते हैं- ब्राह्मण और कायस्थ भी चैत्र-वैशाख के महीनों में लुक-छिपकर पानी ले जाते हैं- परन्तु फिर भी उन्होंने तालाब की प्रतिष्ठा नहीं करने दी। यह क्या माँ के लिए कम कष्ट की बात है?”

मैंने कहा, “अपनी नाक काट के पराया अपशकुन करने की जो कहावत सुनी जाती है, वह यही है।”

बंकू जोर से बोल उठा, “ठीक यही बात है। ऐसे गाँव में अलहदा एक घर से रहना शाप के रूप में भी वरदान के समान है। आपकी क्या राय है?” जवाब में मैंने भी केवल हँसकर सिर हिला दिया। हाँ या नहीं, कुछ स्पष्ट नहीं कहा। परन्तु इससे बंकू के उत्साह में बाधा नहीं पड़ी। मैंने देखा कि लड़का अपनी विमाता को सचमुच ही प्यार करता है। अनुकूल श्रोता पाकर भक्ति के आवेग में वह देखते-देखते पागल हो उठा और उसे लगातार के स्तुति-वाद ने मुझे करीब-करीब व्याकुल कर दिया।

हठात् एकाएक उसे होश आया कि इतनी देर में मैंने उसकी एक भी बात में योग नहीं दिया। तब वह कुछ अप्रतिभ-सा होकर किसी तरह प्रसंग को दबा देने की गरज से बोला, “आप यहाँ पर और कुछ दिन हैं न?”

मैंने हँसकर कहा, “नहीं, कल सुबह ही चला जाऊँगा।”

“कल ही?”

“हाँ कल ही।”

“परन्तु आपका शरीर तो अभी तक सबल हुआ नहीं। क्या आप समझते हैं कि बीमारी एकबारगी चली गयी?”

मैंने कहा, “सुबह तक तो मैं यही समझता था कि बीमारी गयी, परन्तु अब सोचता हूँ कि नहीं। आज दोपहर ही मेरा सिर दुख रहा है।”

“तो फिर क्यों इतने शीघ्र जाते हैं? यहाँ तो आपको किसी प्रकार का कष्ट है नहीं।” इतना कहकर वह लड़का चिन्तित मुख से मेरी ओर देखने लगा। मैंने भी कुछ देर चुप हो, उसके चेहरे की ओर देखते हुए, उसके मुँह पर उसके भीतर के यथार्थ भाव पढ़ने की कोशिश की। जितना भी मैंने उसे पढ़ा उससे उसकी ओर से सत्य-गोपन की कोई भी चेष्टा होती हुई मैं अनुभव नहीं कर सकता। इस पर लड़का लजा अवश्य गया और उस लज्जा को ढँकने की भी उसने कोशिश की। वह बोला, “आप यहाँ से मत जाइए।”

“क्यों न जाऊँ, बताओ?”

“आपके रहने से माँ बड़े आनन्द से रहती हैं।” यह कह तो दिया- पर इससे उसका मुँह लाल हो गया। वह चट से उठकर चल दिया। मैंने देखा, लड़का अत्यन्त भोला और सरल प्रकृति का जरूर है, परन्तु बेवकूफ नहीं है। प्यारी ने कहा था कि “और अधिक दिन रहोगे तो मेरा लड़का क्या खयाल करेगा?” इस बात के साथ उस लड़के के व्यवहार की आलोचना का अर्थ भी मानो मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ ऐसा मुझे मालूम पड़ा; और मातृत्व की इस एक नयी तसवीर के दृष्टिगोचर होने से मानो मैंने एक नूतन ज्ञान सम्पादित किया। प्यारी के हृदय की एकाग्र वासना का अनुमान करना हमारे लिए कठिन नहीं है और वह संसार में सब ओर से सब तरह स्वाधीन है, यह कल्पना करना भी, मैं समझता हूँ कि, पाप नहीं है। फिर भी, उसने जिस मुहूर्त से एक दरिद्र बालक के मातृ-पद को स्वेच्छा से ग्रहण किया है तभी से मानो अपने दोनों पैरों को लोहे की साँकलों से जकड़ लिया है। वह स्वयं चाहे जो हो परन्तु उसे, अपने तईं माता का सम्मान तो अब देना ही होगा! उसकी असंयत कामना, उच्छृंखल प्रवृत्ति, उसे चाहे जितने अध:पतन की ओर क्यों न ठेलना चाहे, परन्तु यह बात भी तो उससे भूली नहीं जाती कि वह एक लड़के की माँ है! और उस सन्तान की भक्ति-नत दृष्टि के सामने तो वह उस माँ को किसी तरह भी अपमानित नहीं होने देगी! उसके विह्वल यौवन के लालसामत्त वसन्त के दिनों में प्यार के साथ किसने उसका नाम 'प्यारी' रक्खा था यह तो मैं नहीं जानता; किन्तु, यह नाम भी वह अपने लड़के के सामने छुपा रखना चाहती है, यह बात मुझे याद आ गयी।

देखते-देखते सूर्य अस्त हो गया। उस ओर ताकते-ताकते मेरा सारा अन्त:करण मानो पिघलकर लाल हो उठा। मन-ही-मन बोला कि राजलक्ष्मी को अब तो मैं नीची निगाह से देख नहीं सकता। हम दोनों का बाहरी बर्ताव इतने दिनों तक चाहे जितने बड़े स्वातन्त्रय की रक्षा करते हुए क्यों न चलता रहा हो, स्नेह चाहे जितना माधुर्य क्यों न ढाल दे, परन्तु इसमें तो कोई सन्देह नहीं है कि दोनों की कामनाएँ एकत्र सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक क्षण दुर्निवार वेग के साथ एक-दूसरे की ओर दौड़ रही हैं। परन्तु आज मैंने देखा कि यह असम्भव है। एकाएक 'बंकू की माँ' आकाश मेदी हिमालय पर्वत की नाईं रास्ता रोककर राजलक्ष्मी और मेरे बीच आकर खड़ी है। मन-ही-मन मैंने कहा, कल सुबह ही तो मैं यहाँ से जा रहा हूँ- किन्तु तब कहीं ऐसा न हो कि मन में फायदे-नुकसान का हिसाब लगाने जाकर कुछ बचा रखने की चेष्टा करने लगूँ। मेरा यह जाना अन्तिम जाना ही हो। देख न पाने का बहाना करके एक अति सूक्ष्म वासना का बन्धन मैं यहाँ न रख जाऊँ जिसका सहारा लेकर फिर कभी मुझे यहाँ आकर उपस्थित होना पड़े!

अन्यमनस्यक होकर उसी जगह बैठा हुआ था। संध्याा के समय धूपदानी में धूप डालकर उसे अपने हाथों में लिये हुए राजलक्ष्मी उसी बरामदे में से और एक कमरे में जा रही थी कि चौंककर खड़ी हो गयी और बोली, “सिरदर्द कर रहा है, ओस में बैठे हुए हो? कमरे में जाओ।”

मुझे हँसी आ गयी। मैंने कहा, “अवाक् कर दिया तुमने लक्ष्मी! ओस यहाँ कहाँ है?”

राजलक्ष्मी बोली, “ओस न सही, ठण्डी हवा तो चल रही है। वही क्या अच्छी होती है?”

“नहीं, यह तुम्हारी भूल है। ठण्डी गरम कोई हवा नहीं चल रही है।” राजलक्ष्मी बोली, “मेरी तो सब भूल ही भूल है, परन्तु सिर दर्द कर रहा है यह तो मेरी भूल नहीं है- यह तो सत्य है न? कमरे में जाकर थोड़ी देर सो रहो न? रतन क्या करता है? वह क्या थोड़ा ओडिकोलन सिर में नहीं लगा सकता? इस घर के नौकर-चाकरों के समान नवाब नौकर पृथ्वी में और कहीं नहीं हैं।” इनता कहकर राजलक्ष्मी अपने काम पर चली गयी।

रतन जब घबराकर और लज्जित हो ओडिकोलन, पानी आदि लेकर हाजिर हुआ और अपनी भूल के लिए बार-बार अनुताप प्रकट करने लगा तब मुझसे हँसे बिना न रहा गया।

रतन ने इससे साहस पाकर धीरे-धीरे कहा, “इसमें मेरा दोष नहीं है बाबू, यह क्या मैं नहीं जानता? परन्तु माँ से यह कहने का उपाय ही नहीं कि जब तुम्हें गुस्सा आता है, वह झूठमूठ ही घर भर के लोगों के दोष देखने लगती हो।”

कुतूहल से मैंने पूछा, “गुस्सा क्यों हैं?”

रतन बोला, “यह जानने का क्या कोई उपाय है? बड़े लोगों को गुस्सा, बाबूजी, यों ही आ जाता है और यों ही चला जाता है। उस समय यदि अपना मुँह छिपाकर न रहा जा सके, तो नौकर-चाकरों के प्राण गये समझो।” दरवाजे के समीप से एकाएक सवाल आया, “तब तुम लोगों का मैं सिर काट लेती हूँ, क्यों रतन? और फिर बड़े लोगों के घर में यदि इतनी मुसीबत है तो और कहीं क्यों नहीं चला जाता?”

मालिक के सवाल से रतन कुण्ठित हो नीचा सिर किये चुपचाप बैठा रहा। राजलक्ष्मी ने कहा, “तेरा काम क्या है? उनका सिर दर्द करता है, यह बंकू के मुँह से सुनकर मैंने तुझसे कहा। इसी से अब रात के आठ बजे यहाँ आकर मेरी बड़ाई कर रहा है। कल से कहीं और नौकरी खोज लेना, अब यहाँ काम नहीं है। समझा!”

राजलक्ष्मी के चले जाने पर रतन ओडिकोलन पानी मिलाकर मेरे सिर पर रखकर हवा करने लगा। राजलक्ष्मी उसी क्षण लौटकर पूछा, “क्या कल सुबह ही घर आओगे?” मेरा जाने का इरादा जरूर था, परन्तु घर लौट जाने का नहीं इसीलिए सवाल का जवाब मैंने और ही तरह से दिया, “हाँ, कल सुबह ही जाऊँगा।”

“सुबह कितने बजे की गाड़ी से जाओगे?”

“सुबह ही निकल पड़ूँगा- फिर जो गाड़ी मिल जावे।”

“अच्छा। न हो तो टाइमटेबुल के लिए किसी को स्टेशन भेज देती हूँ।” इतना कहकर वह चली गयी।

इसके बाद यथासमय रतन ने काम समाप्त करके प्रस्थान किया। नीचे से नौकर-चाकरों का शब्द आना बन्द हो गया। मैं समझ गया कि सभी ने इस समय निद्रा के लिए शय्या का आश्रय ग्रहण कर लिया है।

मुझे किन्तु किसी तरह नींद नहीं आई। घूम-फिरकर केवल एक ही बात बार-बार मन में आने लगी कि प्यारी नाराज क्यों हो गयी? ऐसा मैंने क्या किया है जिससे कि वह मुझे रवाना करने के लिए अधीर हो उठी है? रतन ने कहा था कि बड़े अदमियों को क्रोध यों ही आ जाया करता है। यह बात और बड़े आदमियों के सम्बन्ध में ठीक उतरती है या नहीं, सो नहीं मालूम, परन्तु प्यारी के सम्बन्ध में तो किसी तरह भी ठीक नहीं उतरती। वह अत्यन्त संयमी और बुद्धिमती है, इसका परिचय मुझे बहुत बार मिल चुका है; और मुझमें भी, और बुद्धि चाहे भले ही न हो, प्रवृत्ति के सम्बन्ध में संयम उससे कम नहीं है- मैं तो समझता हूँ किसी से भी कम नहीं है। मेरे हृदय में चाहे कुछ भी क्यों न हो, उसे मुँह से बाहर निकालना, अत्यन्त विकार की बेहोशी में मैं अपने लिए सम्भव नहीं मानता। व्यवहार में भी किसी दिन ऐसा किया हो, सो भी मुझे याद नहीं। खुद के उसके किसी कार्य के कारण लज्जा का कुछ कारण घटित हुआ हो, वह तो अलग बात है; परन्तु मेरे ऊपर गुस्सा होने का कोई कारण नहीं है। इसलिए बिदा के समय का उसका यह उदासीन भाव मुझे जो वेदना देने लगा वह अकिंचित्कर नहीं था।

बहुत रात बीते एकाएक तन्द्रा टूट गयी और मैंने ऑंखें खोलकर देखा कि राजलक्ष्मी गुपचुप कमरे में आई और उसने टेबल के ऊपर का लैम्प बुझाकर उसे दरवाजे के कोने की आड़ में रख दिया। खिड़की खुली हुई थी, उसे बन्द करके, मेरी शय्या के समीप आकर क्षण-भर चुप खड़ी रहकर उसने कुछ सोचा। इसके बाद मशहरी के भीतर हाथ डालकर उसने पहले मेरे सिर का उत्ताप अनुभव किया। इसके बाद कुरते के बटन खोलकर वह छाती के उत्ताप को बार-बार देखने लगी! एकान्त में आने वाली नारी के इस गुप्त कर स्पर्श से पहले तो मैं कुण्ठित और लज्जित हो उठा, परन्तु उसी समय मन में आया कि रोग की बेहोशी की हालत में सेवा करके जिसने चैतन्य को लौटकर ला दिया, उसके नजदीक मेरे लिए लाज करने की बात ही कौन-सी है! इसके बाद उसने बटन बन्द कर दिए, ओढ़ने का कपड़ा खिसक गया था उसे गले तक उढ़ा दिया, अन्त में मशहरी के किनारों को अच्छी तरह ठीक करके अत्यन्त सावधानी से किवाड़ बन्द करके वह बाहर चली गयी।

मैंने सब कुछ देखा और सब कुछ समझा। जो छिपे-छिपे आई थी उसे छिपे-छिपे ही जाने दिया। परन्तु इस निर्जन आधी रात को वह अपना कितना मेरे निकट छोड़ गयी। सो वह कुछ भी न जान सकी। सुबह जब नींद खुली तब बुखार चढ़ा हुआ था। ऑंखें और मुँह जल रहे थे, सिर इतना भारी था कि शय्या त्याग करते क्लेश मालूम हुआ। फिर भी जाना ही होगा। इस घर में मुझे अब अपने ऊपर जरा भी विश्वास नहीं था, न जाने वह किस क्षण धोखा दे जाय। फिर भी डर मुझे अपने लिए उतना नहीं था। परन्तु राजलक्ष्मी के लिए ही मुझे राजलक्ष्मी को छोड़ जाना होगा, इसमें अब जरा-भी आनाकानी करने से काम न चलेगा।

मन-ही-मन सोचकर देखा कि उसने अपने विगत जीवन की कालिमा को बहुत कुछ धोकर साफ कर डाला है। आज अनेक लड़के बच्चे माँ-माँ कहते हुए उसे चारों ओर से घेरे खड़े है। इस भक्ति और प्रीति के आनन्द-धाम से उसे अपमान के साथ छीनकर बाहर निकाल लाऊँ? इतने बड़े प्रेम की क्या यही सार्थकता अन्त में मेरे जीवन के अध्यााय में चिरकाल के लिए लिपिबद्ध हो रहेगी?

प्यारी ने कमरे में प्रवेश करके पूछा, “इस समय तबीयत कैसी है?”

मैं बोला, “ऐसी कुछ विशेष खराब नहीं है। जा सकूँगा।”

“आज न जाने से क्या न चलेगा?”

“नहीं, आज तो जाना ही चाहिए।”

“तो फिर घर पहुँचते ही खबर देना। नहीं तो हम लोगों को बहुत चिन्ता होगी।”

उसके अविचलित धैर्य को देखकर मैं मुग्ध हो गया। उसी क्षण सम्मत होकर बोला, “अच्छा, मैं घर ही जाऊँगा और पहुँचते ही तुम्हें खबर दूँगा।”

प्यारी ने कहा, “जरूर देना। मैं भी चिट्ठी लिखकर तुमसे दो-एक बातें पूछूँगी।”

जब मैं बाहर पालकी में बैठने जा रहा था तब देखा कि दूसरे मंजिल के बरामदे में प्यारी चुपचाप खड़ी है। उसकी छाती के भीतर क्या हो रहा है, सो उसका मुँह देखकर मैं न जान सका।

मुझे अपनी अन्नदा जीजी याद आ गयीं। बहुत समय पहले एक अन्तिम दिन वे भी मानो ठीक ऐसी ही गम्भीर, ऐसी ही स्तब्ध होकर खड़ी थीं। उस समय की उनकी दोनों करुण ऑंखों की दृष्टि को मैं आज भी नहीं भूला हूँ; परन्तु उस दृष्टि में निकवर्ती जुदाई की कितनी बड़ी व्यथा घनीभूत हो रही थी सो मैं उस समय नहीं पढ़ सका था। क्या जानूँ, आज भी उसी तरह का कुछ उन दोनों निबिड़ काली ऑंखों में है या नहीं।

उसाँस छोड़कर मैं पालकी में जा बैठा। देखा कि बड़ा प्रेम केवल पास ही नहीं खींचता, दूर भी ठेल देता है। छोटे-मोटे प्रेम के लिए यह साध्यै ही नहीं था कि वह इस सुखैश्वर्य से भरे-पूरे स्नेह-स्वर्ग से मुझे, मंगल के लिए, कल्याण के लिए, एक डग भी आगे बढ़ाने देता। कहार पालकी लेकर स्टेशन की ओर जल्दी से चल दिये। मन-ही-मन मैं बारम्बार कहने लगा कि लक्ष्मी दु:ख मत करना। यह अच्छा ही हुआ कि मैं यहाँ से चल दिया। तुम्हारा ऋण इस जीवन में चुकाने की शक्ति तो मुझमें नहीं है। परन्तु जिस जीवन को तुमने दिया है, उस जीवन का दुरुपयोग करके अब मैं तुम्हारा अपमान न करूँगा- तुम से दूर रहते हुए भी मैं यह संकल्प सदा अक्षुण्ण रखूँगा।



लेखक : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय



अगला भाग अध्याय पाँच

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दैनिक साहित्य पत्रिका: श्रीकान्त : उपन्यास - अध्याय 4/ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
श्रीकान्त : उपन्यास - अध्याय 4/ शरतचंद्र चट्टोपाध्याय
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