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मोटेराम जी शास्त्री.../ मुंशी प्रेमचंद

मोटेराम जी शास्त्री पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नही जानता! आप अधिकारियों का रूख देखकर काम करते है। स्वदेशी आन्दोलने के दिन...

मोटेराम जी शास्त्री

पण्डित मोटेराम जी शास्त्री को कौन नही जानता! आप अधिकारियों का रूख देखकर काम करते है। स्वदेशी आन्दोलने के दिनों मे अपने उस आन्दोलन का खूब विरोध किया था। स्वराज्य आन्दोलन के दिनों मे भी अपने अधिकारियों से राजभक्ति की सनद हासिल की थी। मगर जब इतनी उछल-कूद पर उनकी तकदीर की मीठी नींद न टूटी, और अध्यापन कार्य से पिण्ड न छूटा, तो अन्त मे अपनी एक नई तदबीर सोची। घर जाकर धर्मपत्नी जी से बोले—इन बूढ़े तोतों को रटाते-रटातें मेरी खोपड़ी पच्ची हुई जाती है। इतने दिनों विद्या-दान देने का क्याफल मिला जो और आगे कुछ मिलने की आशा करूं।
धर्मपत्न ने चिन्तित होकर कहा—भोजनों का भी तो कोई सहारा चाहिए।
मोटेराम—तुम्हें जब देखो, पेट ही की फ्रिक पड़ी रहती है। कोई ऐसा विरला ही दिन जाता होगा कि निमन्त्रण न मिलते हो, और चाहे कोई निन्दा करें, पर मै परोसा लिये बिना नहीं आता हूं। आज ही सब यजमान मरे जाते है? मगर जन्म-भर पेट ही जिलया तो क्या किया। संसार का कुछ सुख भी तो भोगन चाहिए। मैने वैद्य बनने का निश्चय किया है।
स्त्री ने आश्चर्य से कहा—वैद्य बनोगे, कुछ वैद्यकी पढ़ी भी है?
मोटे—वैद्यक पढने से कुछ नही होता, संसार मे विद्या का इतना महत्व नही जितना बुद्धि क। दो-चार सीधे-सादे लटके है, बस और कुछ नही। आज ही अपने नाम के आगे भिष्गाचार्य बढ़ा लूंगा, कौन पूछने आता है, तुम भिषगाचार्य हो या नही। किसी को क्या गरज पड़ी है जो मेरी परिक्षा लेता फिरे। एक मोटा-सा साइनबोर्ड बनवा लूंगा। उस पर शब्द लिखें होगे—यहा स्त्री पुरूषों के गुप्त रोगों की चिकित्सा विशेष रूप से की जाती है। दो-चार पैसे का हउ़-बहेड़ा-आवंला कुट छानकर रख लूंगा। बस, इस काम के लिए इतना सामान पर्याप्त है। हां, समाचारपत्रों मे विज्ञापन दूंगा और नोटिस बंटवाऊंगा। उसमें लंका, मद्रास, रंगून, कराची आदि दूरस्थ स्थानों के सज्जनों की चिटिठयां दर्ज की जाएंगी। ये मेरे चिकित्सा-कौशल के साक्षी होगें जनता को क्या पड़ी है कि वह इस बात का पता लगाती फिरे कि उन स्थानों मे इन नामों के मनुष्य रहते भी है, या नहीं फिर देखों वैद्य की कैसी चलती है।
स्त्री—लेकिन बिना जाने-बूझ दवा दोगे, तो फायदा क्या करेगी?
मोटे—फायदा न करेगी, मेरी बला से। वैद्य का काम दवा देना है, वह मृत्यु को परस्त करने का ठेका नही लेता, और फिर जितने आदमी बीमार पड़ते है, सभी तो नही मर जाते। मेरा यह कहना है कि जिन्हें कोई औषधि नही दी जाती, वे विकार शान्त हो जाने पर ही अच्छे हो जाते है। वैद्यों को बिना मांगे यश मिलता है। पाच रोगियों मे एक भी अच्छा हो गया, तो उसका यश मुझे अवश्य ही मिलेगा। शेष चार जो मर गये, वे मेरी निन्दा करने थोडे ही आवेगें। मैने बहुत विचार करके देख लिया, इससे अच्छा कोई काम नही है। लेख लिखना मुझे आता ही है, कवित्त बना ही लेता हूं, पत्रों मे आयुर्वेद-महत्व पर दो-चार लेख लिख दूंगा, उनमें जहां-तहां दो-चार कवित्त भी जोड़ दूंगा और लिखूगां भी जरा चटपटी भाषा मे । फिर देखों कितने उल्लू फसते है यह न समझो कि मै इतने दिनो केवल बूढे तोते ही रटाता रहा हूं। मै नगर के सफल वैद्यो की चालों का अवलोकन करता रहा हू और इतने दिनों के बाद मुझे उनकी सफलता के मूल-मंत्र का ज्ञान हुआ है। ईश्वर ने चाहा तो एक दिन तुम सिर से पांव तक सोने से लदी होगी।
स्त्री ने अपने मनोल्लास को दबाते हुए कहा—मै इस उम्र मे भला क्या गहने पहनूंगी, न अब वह अभिलाषा ही है, पर यह तो बताओं कि तुम्हें दवाएं बनानी भी तो नही आती, कैसे बनाओगे, रस कैसे बनेगें, दवाओ को पहचानते भी तो नही हो।
मोटे—प्रिये! तुम वास्तव मे बड़ी मूर्ख हो। अरे वैद्यो के लिए इन बातों मे से एक भी आवश्यकता नही, वैद्य की चुटकी की राख ही रस है, भस्म है, रसायन है, बस आवश्यकता है कुछ ठाट-बाट की। एक बड़ा-सा कमरा चाहिए उसमें एक दरी हो, ताखों पर दस-पांच शीशीयां बोतल हो। इसके सिवा और कोई चीज दरकार नही, और सब कुछ बुद्धि आप ही आप कर लेती है। मेरे साहित्य-मिश्रित लेखों का बड़ा प्रभाव पड़ेगा, तुम देख लेना। अलंकारो का मुझे कितना ज्ञान है, यह तो तुम जानती ही हो। आज इस भूमण्डल पर मुझे ऐसा कोई नही दिखता जो अलंकारो के विषय मे मुझसे पेश पा सके। आखिर इतने दिनों घास तो नही खोदी है! दस-पाचं आदमी तो कवि-चर्चा के नाते ही मेरे यहां आया जाया करेगें। बस, वही मेरे दल्लाह होगें। उन्ही की मार्फत मेरे पास रोगी आवेगें। मै आयुर्वेद-ज्ञान के बल पर नही नायिका-ज्ञान के बल पर धड़ल्ले से वैद्यक करूंगा, तुम देखती तो जाओ।
स्त्री ने अविश्वास के भाव से कहा—मुझे तो डर लगता है कि कही यह विद्यार्थी भी तुम्हारे हाथ से न जाए। न इधर के रहो ने उधर के। तुम्हारे भाग्य मे तो लड़के पढ़ाना लिखा है, और चारों ओर से ठोकर खाकर फिर तुम्हें वी तोते रटाने पडेगें।
मोटे—तुम्हें मेरी योग्यता पर विश्वास क्यों नही आता?
स्त्री—इसलिए कि तुम वहां भी धुर्तता करोगे। मै तुम्हारी धूर्तता से चिढ़ती हूं। तुम जो कुछ नही हो और नही हो सकते,वक क्यो बनना चाहते हो? तुम लीडर न बन सके, न बन सके, सिर पटककर रह गये। तुम्हारी धूर्तता ही फलीभूत होती है और इसी से मुझे चिढ़ है। मै चाहती हूं कि तुम भले आदमी बनकर रहो। निष्कपट जीवन व्यतीत करो। मगर तुम मेरी बात कब सुनते हो?
मोटे—आखिर मेरा नायिका-ज्ञान कब काम आवेगा?
स्त्री—किसी रईस की मुसाहिबी क्यो नही कर लेते? जहां दो-चार सुन्दर कवित्त सुना दोगें। वह खुश हो जाएगा और कुछ न कुछ दे ही मारेगा। वैद्यक का ढोंग क्यों रचते हों!
मोटे—मुझे ऐसे-ऐसे गुर मालूम है जो वैद्यो के बाप-दादों को भी न मालूम होगे। और सभी वैद्य एक-एक, दो-दो रूपये पर मारे-मारे फिरते है, मै अपनी फीस पांच रूपये रक्खूगा, उस पर सवारी का किराया अलग। लोग यही समझेगें कि यह कोई बडे वैद्य है नही तो इतनी फीस क्यों होती?
स्त्री को अबकी कुछ विश्वास आया बोली—इतनी देर मे तुमने एक बात मतलब की कही है। मगर यह समझ लो, यहां तुम्हारा रंग न जमेगा, किसी दूसरे शहर को चलना पड़ेगा।
मोटे—(हंसकर) क्या मै इतना भी नही जानता। लखनऊ मे अडडा जमेगा अपना। साल-भर मे वह धाक बांध दू कि सारे वैद्य गर्द हो जाएं। मुझे और भी कितने ही मन्त्र आते है। मै रोगी को दो-तीन बार देखे बिना उसकी चिकित्सा ही न करूंगा। कहूंगा, मै जब तक रोगी की प्रकृति को भली भांति पहचान न लूं, उसकी दवा नही कर सकता। बोलो, कैसी रहेगी?
स्त्री की बांछे खिल गई, बोली—अब मै तुम्हे मान गई, अवश्य चलेगी तुम्हारी वैद्यकी, अब मुझे कोई संदेह नही रहा। मगर गरीबों के साथ यह मंत्र न चलाना नही तो धोखा खाओगे।

2

साल भर गुजर गया।
भिषगाचार्य पण्डित मोटेराम जी शास्त्री की लखनऊ मे घूम मच गई। अलंकारों का ज्ञान तो उन्हे था ही, कुछ गा-बजा भी लेते थे। उस पर गुप्त रोगो के विशेषज्ञ, रसिको के भाग्य जागें। पण्डित जी उन्हें कवित सुनाते, हंसाते, और बलकारक औषधियां खिलाते, और वह रईसों मे, जिन्हें पुष्टिकारक औषधियों की विशेष चाह रहती है, उनकी तारीफों के पुल बांधते। साल ही भर मे वैद्यजी का वह रंग जमा, कि बायद व शायदं गुप्त रोगों के चिकित्सक लखनऊ मे एकमात्र वही थे। गुप्त रूप से चिकित्सा भी करते। विलासिनी विधवारानियों और शौकीन अदूरदर्शी रईसों मे आपकी खूब पूजा होने लगी। किसी को अपने सामने समझते ही न थे।
मगर स्त्री उन्हे बराबर समझाया करती कि रानियों के झमेलें मे न फसों, नही क दिन पछताओगे।
मगर भावी तो होकर ही रहती है, कोई लाख समझाये-बुझाये। पंडितजी के उपासको मे बिड़हल की रानी भी थी। राजा साहब का स्वर्गवास हो चुका था, रानी साहिबा न जाने किस जीर्ण रोग से ग्रस्त थी। पण्डितजी उनके यहां दिन मे पांच-पाचं बार जाते। रानी साहिबा उन्हें एक क्षण के लिए भी देर हो जाती तो बेचैन हो जाती, एक मोटर नित्य उनके द्वार पर खड़ी रहती थी। अब पण्डित जी ने खूब केचुल बदली थी। तंजेब की अचकन पहनते, बनारसी साफा बाधते और पम्प जूता डाटते थे। मित्रगण भी उनके साथ मोटर पर बैठकर दनदनाया करते थे। कई मित्रों को रानी सहिबा के दरबार मे नौकर रखा दिया। रानी साहिबा भला अपने मसीहा की बात कैसी टालती।
मगर चर्खे जफाकार और ही षययन्त्र रच रहा था।
एक दिन पण्डितजी रानी साहिबा की गोरी-गोरी कलाई पर एक हाथ रखे नब्ज देख रहे थे, और दूसरे हाथ से उनके हृदय की गति की परिक्षा कर रहे थे कि इतने मे कई आदमी सोटै लिए हुए कमरे मे घुस आये और पण्डितजी पर टूट पड़े। रानी भागकर दूसरे कमरे की शरण ली और किवाड़ बन्द कर लिए। पण्डितजी पर बेभाव पड़ने लगे। यों तो पण्डितजी भी दमखम के आदमी थे, एक गुप्ती संदैव साथ रखते थे। पर जब धोखे मे कई आदमियों ने धर दबाया तो क्या करते? कभी इसका पैकर पकड़ते कभी उसका। हाय-हाय! का शब्द मुंह से निकल रहा था पर उन बेरहमों को उन पर जरा भी दया न आती थी, एक आदम ने एक लात जमाकर कहा—इस दुष्ट की नाक काट लो।
दूसरा बोला—इसके मुंह मे कलिख और चूना लगाकर छोड़ दो।
तीसरा—क्यों वैद्यजी महाराज, बोलो क्या मंजूर है? नाक कटवाओगे या मुंह मे कालिख लगवाओगें?
पण्डित—भूलकर भी नही सरकार। हाय मर गया!
दूसरा—आज ही लखनऊ से रफरैट हो जाओं नही तो बुरा होगा।
पणिडत—सरकार मै आज ही चला जाऊगां। जनेऊ की शपथ खाकर कहता हूं। आप यहां मेरी सूरत न देखेगें।
तीसरा—अच्छा भाई, सब कोई इसे पांच-पाचं लाते लगाकर छोड़ दो।
पण्डित—अरे सरकार, मर जाऊगां, दया करो
चौथा—तुम जैसे पाखंडियो का मर जाना ही अच्छा है। हां तो शुरू हो।
पंचलत्ती पड़ने लगी, धमाधम की आवाजें आने लगी। मालूम होता था नगाड़े पर चोट पड़ रही है। हर धमाके के बाद एक बार हाय की आवाज निकल आती थी, मानों उसकी प्रतिध्वनी हो।
पंचलत्ती पूजा समाप्त हो जाने पर लोगों ने मोटेराम जी को घसीटकर बाहर निकाला और मोटर पर बैठाकर घर भेज दिया, चलते-चलते चेतावनी दे दी, कि प्रात:काल से पहले भाग खड़े होना, नही तो और ही इलाज किया जाएगा।


मोटेराम जी लंगड़ाते, कराहते, लकड़ी टेकते घर मे गए और धम से गिर पड़े चारपाई पर गिर पडे। स्त्री ने घबराकर पूछा—कैसा जी है? अरे तुम्हारा क्या हाल है? हाय-हाय यह तुम्हारा चेहरा कैसा हो गया!
मोटे—हाय भगवान, मर गया।
स्त्री—कहां दर्द है? इसी मारे कहती थी, बहुत रबड़ी न खाओं। लवणभास्कर ले आऊं?
मोटे—हाय, दुष्टों ने मार डाला। उसी चाण्डालिनी के कारण मेरी दुर्गति हुई । मारते-मारते सबों ने भुरकुस निकाल दिया।
स्त्री—तो यह कहो कि पिटकर आये हो। हां, पिटे हो। अच्छा हुआ। हो तुम लातो ही के देवता। कहती थी कि रानी के यहां मत आया-जाया करो। मगर तुम कब सुनते थे।
मोटे—हाय, हाय! रांड, तुझे भी इसी दम कोसने की सूझी। मेरा तो बुरा हाल है और तू कोस रही है। किसी से कह दे, ठेला-वेला लावे, रातो-रात लखनऊ से भाग जाना है। नही तो सबेरे प्राण न बचेगें।
स्त्री—नही, अभी तुम्हारा पेट नही भरा। अभी कुछ दिन और यहां की हवा खाओ! कैसे मजे से लड़के पढात थे, हां नही तो वैद्य बनने की सूझी। बहुत अच्छा हुआ, अब उम्र भर न भूलोगे। रानी कहां थी कि तुम पिटते रहे और उसने तुम्मारी रक्षा न की।
पण्डित—हाय, हाय वह चुडैल तो भाग गई। उसी के कारण । क्या जानता था कि यह हाल होगा, नहीं ता उसकी चिकित्सा ही क्यों करता?
स्त्री—हो तुम तकदीर के खोटे। कैसी वैद्यकी चल गई थी। मगर तुम्हारी करतूतों ने सत्यनाश मार दिया। आखिर फिर वही पढौनी करना पड़ी। हो तकदीर के खोटे।
प्रात:काल मोटेराम जी के द्वार पर ठेला खड़ा था और उस पर असबाब लद रहा था। मित्रो मे एक भी नजर न आता था। पण्डित जी पड़े कराह रहे थे ओर स्त्री सामान लदवा रही थी।

लेखक : मुंशी प्रेमचन्द

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नाम

अज्ञेय,14,अनाथ लड़की,1,अनुपमा का प्रेम,1,अनुभव,1,अनुराधा,1,अनुरोध,1,अपना गान,1,अपनी करनी,1,अभागी का स्वर्ग,1,अमृत,1,अमृता प्रीतम,8,अलग्योझा,1,अविनाश ब्यौहार,4,अशआर,1,अश्वघोष,6,आख़िरी तोहफ़ा,1,आखिरी मंजिल,1,आत्म-संगीत,1,आर्यन मिश्र,2,इज्ज़त का ख़ून,1,उद्धार,1,उपन्यास,48,कफ़न,1,कबीरदास,2,कबीरदास जी के दोहे,3,कर्मों का फल,1,कवच,1,कविता,60,कविता कैसे लिखते है,1,कविता लिखने के नियम,1,कहानी,130,क़ातिल,1,कुंडलिया छंद,6,क्योंकर मुझे भुलाओगे,1,क्रान्ति-पथे,1,ग़ज़ल,108,ग़ज़ल की 32 बहर,3,गजलें,1,ग़रीब की हाय,1,गिरधर कविराय,5,गिरधर की कुंडलिया,4,गिरधर की कुंडलिया छंद,1,गीत,9,गीतिका,1,गुस्ताख हिन्दुस्तानी,8,गोपालदास "नीरज",14,गोपासदास "नीरज",1,गोस्वामी तुलसीदास,1,गोस्वामी तुलसीदास जी,1,गोस्वामी तुलसीदास जी के दोहे,2,घमण्ड का पुतला,1,घर जमाई,1,घासवाली,1,चंदबरदाई,3,छंद,25,छंद के नियम,1,छंद क्या है,1,छंदमुक्त कविता कैसे लिखें,1,जयशंकर प्रसाद,4,जानभी चौधुरी,2,जीतेन्द्र मीना 'गुरदह',2,जॉन एलिया,16,जौन एलिया,1,ज्वालामुखी,1,ठाकुर का कुआँ,1,डॉ. शिवम् तिवारी,1,डॉ.सिराज,1,तुम और मैं,1,तुलसीदास जी के दोहे,1,तोमर छंद,1,तोमर छंद के नियम,1,तोमर छंद कैसे लिखते है,1,त्रिया-चरित्र,1,दण्ड,1,दिल की रानी,1,दिलीप वर्मा'मीर',1,दीपावली का एक दीप,1,दुर्गा का मन्दिर,1,दुष्यंत कुमार,12,दूसरी शादी,1,देवधर की स्मृतियाँ,1,देवी- एक लघु कथा,1,दैनिक साहित्य,4,दो बैलों की कथा,1,दो सखियाँ,1,दोहा,12,दोहा छंद,6,दोहा छन्द,1,दोहा छन्द की परिभाषा,1,दोहा छन्द की पहचान?,1,नज़्म,7,नमक का दारोगा,1,नवगीत,1,नहीं तेरे चरणों में,1,नाग-पूजा,1,निदा फ़ाज़ली,26,निधि छंद के नियम,1,निधि छंद कैसे लिखते है,1,निमन्त्रण,1,निर्मला,21,निर्वासन,1,नैराश्य लीला,1,पंच परमेश्वर,1,पराजय-गान,1,परिणीता,1,पर्वत यात्रा,1,पहले भी मैं इसी राह से जा कर फिर,1,पुस्तक लोकार्पण,2,पूस की रात,1,प्रतापचन्द और कमलाचरण,1,प्रतीक मिश्रा "निरन्तर",1,प्रस्थान,1,प्रातः कुमुदिनी,1,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,15,बड़े घर की बेटी,1,बत्ती और शिखा,1,बन्द दरवाजा,1,बलिदान,1,बशीर बद्र,1,बहर क्या है?,1,बालकों का चोर,1,बाल्य-स्मृति,1,बूढ़ी काकी,1,भग्नदूत,4,मंझली दीदी,1,मंत्र,1,मनोरम छंद,1,मनोरम छंद कैसे लिखते है?मनोरम छंद क्वे नियम,1,मनोरमगा छंद के नियम,1,मनोरमगा छंद कैसे लिखते है?,1,मन्दिर,1,महातीर्थ,1,महादेवी वर्मा,5,मात्रा गणना कैसे करते है,1,मात्रिक अर्द्धसम छन्द,1,मात्रिक छंद के प्रकार,1,मात्रिक छंद क्या है,1,मिर्ज़ा ग़ालिब,1,मिलाप,1,मिस पद्मा,1,मीनू पंत त्रिपाठी,2,मुंशी प्रेमचंद,126,मुक्तक के नियम?,1,मुक्तक कैसे लिखते है?,1,मुक्तक क्या है?,1,मुहम्मद आसिफ अली,1,मैकू,1,मोटर के छींटे,1,यह मेरी मातृभूमि है,1,रसखान,2,रहस्य,1,राज किशोर मिश्र,1,राजहठ,1,राधिका छंद के नियम,1,राधिका छंद कैसे लिखते है,1,राम जी तिवारी"राम",1,राहत इंदौरी,21,लैला,1,वासना की कडियॉँ,1,विजय,1,विलासी,1,विष्णुपद छंद,1,विष्णुपद छंद कैसे लिखते है?,1,वेदी तेरी पर माँ,1,वैधविक,3,शंखनाद,1,शरतचंद्र चट्टोपाध्याय,32,शराब की दुकान,1,शायरी,2,शास्त्र छंद कैसे लिखते है,1,शास्त्र छंद.शास्त्र छंद के नियम,1,श्रीकान्त,20,श्रृंगार छंद के नियम,1,श्रृंगार छंद कैसे लिखते है?,1,संजय चतुर्वेदी,6,संत कबीरदास,1,संस्मरण,1,सच्चाई का उपहार,1,सती,1,सनातन,1,समर यात्रा,1,सम्भाव्य,1,सरिता कुमारी ‘क़लम’,1,सवैया छंद,2,सागर त्रिपाठी,1,सारी दुनिया के लिए,1,सार्द्धसरस छंद के नियम,1,सार्द्धसरस छंद कैसे लिखते है?,1,साहित्य अकादमी,4,साहित्य ज्ञान,22,साहित्यिक खबरें,5,सुभद्रा कुमारी चौहान,6,सुलक्षण छंद,1,सुलक्षण छंद के नियम,1,सुलक्षण छंद कैसे लिखते है?,1,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,4,सैलानी बन्दर,1,सोहाग का शव,1,सौत,1,स्वर्ग की देवी,1,हम क्या शीश नवाएँ,1,हम लड़कियां है,1,हरिचरण,1,हस्तीमल "हस्ती",1,हस्तीमल हस्ती के दोहे,1,होली की छुट्टी,1,होशियार सिंह ‘शंबर’,1,होशियार सिंह ‘शंबर’ के दोहे,1,Ghazal Ki Matra Aur Bahar,1,Hindi Me Kavita Kaise Likhe,1,How to Write Hindi Poem,1,Kavita Likhna Seekhe,1,manoram chhand,1,Radhika Chhand Kaise Likhte Hai,1,Vishnupad Chhand Kaise Likhate Hai,1,
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दैनिक साहित्य पत्रिका: मोटेराम जी शास्त्री.../ मुंशी प्रेमचंद
मोटेराम जी शास्त्री.../ मुंशी प्रेमचंद
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