स्वर्ग की देवी.../ मुंशी प्रेमचंद

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स्वर्ग की देवी :  भाग्य की बात ! शादी विवाह में आदमी का क्या अख्तियार । जिससे ईश्वर ने, या उनके नायबों –ब्रह्मण—ने तय कर दी, उसस...

स्वर्ग की देवी : 

भाग्य की बात ! शादी विवाह में आदमी का क्या अख्तियार । जिससे ईश्वर ने, या उनके नायबों –ब्रह्मण—ने तय कर दी, उससे हो गयी। बाबू भारतदास ने लीला के लिए सुयोग्य वर खोजने में कोई बात उठा नही रखी। लेकिन जैसा घर-घर चाहते थे, वैसा न पा सके। वह लडकी को सुखी देखना चाहते थे, जैसा हर एक पिता का धर्म है ; किंतु इसके लिए उनकी समझ में सम्पत्ति ही सबसे जरूरी चीज थी। चरित्र या शिक्षा का स्थान गौण था। चरित्र तो किसी के माथे पर लिखा नही रहता और शिक्षा का आजकल के जमाने में मूल्य ही क्या ? हां, सम्पत्ति के साथ शिक्षा भी हो तो क्या पूछना ! ऐसा घर बहुत ढढा पर न मिला तो अपनी विरादरी के न थे। बिरादरी भी मिली, तो जायजा न मिला!; जायजा भी मिला तो शर्ते तय न हो सकी। इस तरह मजबूर होकर भारतदास को लीला का विवाह लाला सन्तसरन के लडके सीतासरन से करना पडा। अपने बाप का इकलौता बेटा था, थोडी बहुत शिक्षा भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता था, मामले-मुकदमें समझता था और जरा दिल का रंगीला भी था । सबसे बडी बात यह थी कि रूपवान, बलिष्ठ, प्रसन्न मुख, साहसी आदमी था ; मगर विचार वही बाबा आदम के जमाने के थे। पुरानी जितनी बाते है, सब अच्छी ; नयी जितनी बातें है, सब खराब है। जायदाद के विषय में जमींदार साहब नये-नये दफों का व्यवहार करते थे, वहां अपना कोई अख्तियार न था ; लेकिन सामाजिक प्रथाओं के कटटर पक्षपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते या कहते वही खुद भी कहता था। उसमें खुद सोचने की शक्ति ही न थी। बुद्वि की मंदता बहुधा सामाजिक अनुदारता के रूप में प्रकट होती है।



लीला ने जिस दिन घर में वॉँव रखा उसी दिन उसकी परीक्षा शुरू हुई। वे सभी काम, जिनकी उसके घर में तारीफ होती थी यहां वर्जित थे। उसे बचपन से ताजी हवा पर जान देना सिखाया गया था, यहां उसके सामने मुंह खोलना भी पाप था। बचपन से सिखाया गया था रोशनी ही जीवन है, यहां रोशनी के दर्शन दुर्भभ थे। घर पर अहिंसा, क्षमा और दया ईश्वरीय गुण बताये गये थे, यहां इनका नाम लेने की भी स्वाधीनता थी। संतसरन बडे तीखे, गुस्सेवर आदमी थे, नाक पर मक्खी न बैठने देते। धूर्तता और छल-कपट से ही उन्होने जायदाद पैदा की थी। और उसी को सफल जीवन का मंत्र समझते थे। उनकी पत्नी उनसे भी दो अंगुल ऊंची थीं। मजाल क्या है कि बहू अपनी अंधेरी कोठरी के द्वार पर खडी हो जाय, या कभी छत पर टहल सकें । प्रलय आ जाता, आसमान सिर पर उठा लेती। उन्हें बकने का मर्ज था। दाल में नमक का जरा तेज हो जाना उन्हें दिन भर बकने के लिए काफी बहाना था । मोटी-ताजी महिला थी, छींट का घाघरेदार लंहगा पहने, पानदान बगल में रखे, गहनो से लदी हुई, सारे दिन बरोठे में माची पर बैठीे रहती थी। क्या मजाल कि घर में उनकी इच्छा के विरूद्व एक पत्ता भी हिल जाय ! बहू की नयी-नयी आदतें देख देख जला करती थी। अब काहे की आबरू होगी। मुंडेर पर खडी हो कर झांकती है। मेरी लडकी ऐसी दीदा-दिलेर होती तो गला घोंट देती। न जाने इसके देश में कौन लोग बसते है ! गहनें नही पहनती। जब देखो नंगी – बुच्ची बनी बैठी रहती है। यह भी कोई अच्छे लच्छन है। लीला के पीछे सीतासरन पर भी फटकार पडती। तुझे भी चॉँदनी में सोना अच्छा लगता है, क्यों ? तू भी अपने को मर्द कहता कहेगा ? यह मर्द कैसा कि औरत उसके कहने में न रहे। दिन-भर घर में घुसा रहता है। मुंह में जबान नही है ? समझता क्यों नही ?
सीतासरन कहता---अम्मां, जब कोई मेरे समझाने से माने तब तो?
मां---मानेगी क्यो नही, तू मर्द है कि नही ? मर्द वह चाहिए कि कडी निगाह से देखे तो औरत कांप उठे।
सीतासरन -----तुम तो समझाती ही रहती हो ।
मां ---मेरी उसे क्या परवाह ? समझती होगी, बुढिया चार दिन में मर जायगी तब मैं मालकिन हो ही जाउँगी
सीतासरन --- तो मैं भी तो उसकी बातों का जबाब नही दे पाता। देखती नही हो कितनी दुर्बल हो गयी है। वह रंग ही नही रहा। उस कोठरी में पडे-पडे उसकी दशा बिगडती जाती है।
बेटे के मुंह से ऐसी बातें सुन माता आग हो जाती और सारे दिन जलती ; कभी भाग्य को कोसती, कभी समय को ।
सीतासरन माता के सामने तो ऐसी बातें करता ; लेकिन लीला के सामने जाते ही उसकी मति बदल जाती थी। वह वही बातें करता था जो लीला को अच्छी लगती। यहां तक कि दोनों वृद्वा की हंसी उडातें। लीला को इस में ओर कोई सुख न था । वह सारे दिन कुढती रहती। कभी चूल्हे के सामने न बैठी थी ; पर यहां पसेरियों आटा थेपना पडता, मजूरों और टहलुओं के लिए रोटी पकानी पडती। कभी-कभी वह चूल्हे के सामने बैठी घंटो रोती। यह बात न थी कि यह लोग कोई महाराज-रसोइया न रख सकते हो; पर घर की पुरानी प्रथा यही थी कि बहू खाना पकाये और उस प्रथा का निभाना जरूरी था। सीतासरन को देखकर लीला का संतप्त ह्रदय एक क्षण के लिए शान्त हो जाता था।
गर्मी के दिन थे और सन्ध्या का समय था। बाहर हवा चलती, भीतर देह फुकती थी। लीला कोठरी में बैठी एक किताब देख रही थी कि सीतासरन ने आकर कहा--- यहां तो बडी गर्मी है, बाहर बैठो।
लीला—यह गर्मी तो उन तानो से अच्छी है जो अभी सुनने पडेगे।
सीतासरन—आज अगर बोली तो मैं भी बिगड जाऊंगा।
लीला—तब तो मेरा घर में रहना भी मुश्किल हो जायेगा।
सीतासरन—बला से अलग ही रहेंगे !
लीला—मैं मर भी लाऊं तो भी अलग रहूं । वह जो कुछ कहती सुनती है, अपनी समझ से मेरे भले ही के लिए कहती-सुनती है। उन्हें मुझसे कोई दुश्मनी थोडे ही है। हां, हमें उनकी बातें अच्छी न लगें, यह दूसरी बात है।उन्होंने खुद वह सब कष्ट झेले है, जो वह मुझे झेलवाना चाहती है। उनके स्वास्थ्य पर उन कष्टो का जरा भी असर नही पडा। वह इस ६५ वर्ष की उम्र में मुझसे कहीं टांठी है। फिर उन्हें कैसे मालूम हो कि इन कष्टों से स्वास्थ्य बिगड सकता है।
सीतासरन ने उसके मुरझाये हुए मुख की ओर करुणा नेत्रों से देख कर कहा—तुम्हें इस घर में आकर बहुत दु:ख सहना पडा। यह घर तुम्हारे योग्य न था। तुमने पूर्व जन्म में जरूर कोई पाप किया होगा।
लीला ने पति के हाथो से खेलते हुए कहा—यहां न आती तो तुम्हारा प्रेम कैसे पाती ?



पांच साल गुजर गये। लीला दो बच्चों की मां हो गयी। एक लडका था, दूसरी लडकी । लडके का नाम जानकीसरन रखा गया और लडकी का नाम कामिनी। दोनो बच्चे घर को गुलजार किये रहते थे। लडकी लडकी दादा से हिली थी, लडका दादी से । दोनों शोख और शरीर थें। गाली दे बैठना, मुंह चिढा देना तो उनके लिए मामूली बात थी। दिन-भर खाते और आये दिन बीमार पडे रहते। लीला ने खुद सभी कष्ट सह लिये थे पर बच्चों में बुरी आदतों का पडना उसे बहुत बुरा मालूम होता था; किन्तु उसकी कौन सुनता था। बच्चों की माता होकर उसकी अब गणना ही न रही थी। जो कुछ थे बच्चे थे, वह कुछ न थी। उसे किसी बच्चे को डाटने का भी अधिकार न था, सांस फाड खाती थी।
सबसे बडी आपत्ति यह थी कि उसका स्वास्थ्य अब और भी खराब हो गया था। प्रसब काल में उसे वे भी अत्याचार सहने पडे जो अज्ञान, मूर्खता और अंध विश्वास ने सौर की रक्षा के लिए गढ रखे है। उस काल-कोठरी में, जहॉँ न हवा का गुजर था, न प्रकाश का, न सफाई का, चारों और दुर्गन्ध, और सील और गन्दगी भरी हुई थी, उसका कोमल शरीर सूख गया। एक बार जो कसर रह गयी वह दूसरी बार पूरी हो गयी। चेहरा पीला पड गया, आंखे घंस गयीं। ऐसा मालूम होता, बदन में खून ही नही रहा। सूरत ही बदल गयी।
गर्मियों के दिन थे। एक तरफ आम पके, दूसरी तरफ खरबूजे । इन दोनो फलो की ऐसी अच्छी फसल कभी न हुई थी अबकी इनमें इतनी मिठास न जाने कहा से आयी थी कि कितना ही खाओ मन न भरे। संतसरन के इलाके से आम औरी खरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा घर खूब उछल-उछल खाता था। बाबू साहब पुरानी हड्डी के आदमी थे। सबेरे एक सैकडे आमों का नाश्ता करते, फिर पसेरी-भर खरबूज चट कर जाते। मालकिन उनसे पीछे रहने वाली न थी। उन्होने तो एक वक्त का भोजन ही बन्द कर दिया। अनाज सडने वाली चीज नही। आज नही कल खर्च हो जायेगा। आम और खरबूजे तो एक दिन भी नही ठहर सकते। शुदनी थी और क्या। यों ही हर साल दोनों चीजों की रेल-पेल होती थी; पर किसी को कभी कोई शिकायत न होती थी। कभी पेट में गिरानी मालूम हुई तो हड की फंकी मार ली। एक दिन बाबू संतसरन के पेट में मीठा-मीठा दर्द होने लगा। आपने उसकी परवाह न की । आम खाने बैठ गये। सैकड़ा पूरा करके उठे ही थे कि कै हुई । गिर पडे फिर तो तिल-तिल करके पर कै और दस्त होने लगे। हैजा हो गया। शहर के डाक्टर बुलाये गये, लेकिन आने के पहले ही बाबू साहब चल बसे थे। रोना-पीटना मच गया। संध्या होते-होते लाश घर से निकली। लोग दाह-क्रिया करके आधी रात को लौटे तो मालकिन को भी कै दस्त हो रहे थे। फिर दौड धूप शुरू हुई; लेकिन सूर्य निकलते-निकलते वह भी सिधार गयी। स्त्री-पुरूष जीवनपर्यंत एक दिन के लिए भी अलग न हुए थे। संसार से भी साथ ही साथ गये, सूर्यास्त के समय पति ने प्रस्थान किया, सूर्योदय के समय पत्नी ने ।
लेकिन मुशीबत का अभी अंत न हुआ था। लीला तो संस्कार की तैयारियों मे लगी थी; मकान की सफाई की तरफ किसी ने ध्यान न दिया। तीसरे दिन दोनो बच्चे दादा-दादी के लिए रोत-रोते बैठक में जा पंहुचे। वहां एक आले का खरबूजज कटा हुआ पडा था; दो-तीन कलमी आम भी रखे थे। इन पर मक्खियां भिनक रही थीं। जानकी ने एक तिपाई पर चढ कर दोनों चीजें उतार लीं और दोंनों ने मिलकर खाई। शाम होत-होते दोनों को हैजा हो गया और दोंनो मां-बाप को रोता छोड चल बसे। घर में अंधेरा हो गया। तीन दिन पहले जहां चारों तरफ चहल-पहल थी, वहां अब सन्नाटा छाया हुआ था, किसी के रोने की आवाज भी सुनायी न देती थी। रोता ही कौन ? ले-दे के कुल दो प्राणी रह गये थे। और उन्हें रोने की सुधि न थी।



लीला का स्वास्थ्य पहले भी कुछ अच्छा न था, अब तो वह और भी बेजान हो गयी। उठने-बैठने की शक्ति भी न रही। हरदम खोयी सी रहती, न कपडे-लत्ते की सुधि थी, न खाने-पीने की । उसे न घर से वास्ता था, न बाहर से । जहां बैठती, वही बैठी रह जाती। महीनों कपडे न बदलती, सिर में तेल न डालती बच्चे ही उसके प्राणो के आधार थे। जब वही न रहे तो मरना और जीना बराबर था। रात-दिन यही मनाया करती कि भगवान् यहां से ले चलो । सुख-दु:ख सब भुगत चुकी। अब सुख की लालसा नही है; लेकिन बुलाने से मौत किसी को आयी है ?
सीतासरन भी पहले तो बहुत रोया-धोया; यहां तक कि घर छोडकर भागा जाता था; लेकिन ज्यों-ज्यो दिन गुजरते थे बच्चों का शोक उसके दिल से मिटता था; संतान का दु:ख तो कुछ माता ही को होता है। धीरे-धीरे उसका जी संभल गया। पहले की भॉँति मित्रों के साथ हंसी-दिल्लगी होने लगी। यारों ने और भी चंग पर चढाया । अब घर का मालिक था, जो चाहे कर सकता था, कोई उसका हाथ रोकने वाला नही था। सैर’-सपाटे करने लगा। तो लीला को रोते देख उसकी आंखे सजग हो जाती थीं, कहां अब उसे उदास और शोक-मग्न देखकर झुंझला उठता। जिंदगी रोने ही के लिए तो नही है। ईश्वर ने लडके दिये थे, ईश्वर ने ही छीन लिये। क्या लडको के पीछे प्राण दे देना होगा ? लीला यह बातें सुनकर भौंचक रह जाती। पिता के मुंह से ऐसे शब्द निकल सकते है। संसार में ऐसे प्राणी भी है।
होली के दिन थे। मर्दाना में गाना-बजाना हो रहा था। मित्रों की दावत का भी सामान किया गया था । अंदर लीला जमींन पर पडी हुई रो रही थी त्याहोर के दिन उसे रोते ही कटते थें आज बच्चे बच्चे होते तो अच्छे- अच्छे कपडे पहने कैसे उछलते फिरते! वही न रहे तो कहां की तीज और कहां के त्योहार।
सहसा सीतासरन ने आकर कहा – क्या दिन भर रोती ही रहोगी ? जरा कपडे तो बदल डालो , आदमी बन जाओ । यह क्या तुमने अपनी गत बना रखी है ?
लीला—तुम जाओ अपनी महफिल मे बैठो, तुम्हे मेरी क्या फिक्र पडी है।
सीतासरन—क्या दुनिया में और किसी के लडके नही मरते ? तुम्हारे ही सिर पर मुसीबत आयी है ?
लीला—यह बात कौन नही जानता। अपना-अपना दिल ही तो है। उस पर किसी का बस है ?
सीतासरन मेरे साथ भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है ?
लीला ने कुतूहल से पति को देखा, मानो उसका आशय नही समझी। फिर मुंह फेर कर रोने लगी।
सीतासरन – मै अब इस मनहूसत का अन्त कर देना चाहता हूं। अगर तुम्हारा अपने दिल पर काबू नही है तो मेरा भी अपने दिल पर काबू नही है। मैं अब जिंदगी – भर मातम नही मना सकता।
लीला—तुम रंग-राग मनाते हो, मैं तुम्हें मना तो नही करती ! मैं रोती हूं तो क्यूं नही रोने देते।
सीतासरन—मेरा घर रोने के लिए नही है ?
लीला—अच्छी बात है, तुम्हारे घर में न रोउंगी।

5

लीला ने देखा, मेरे स्वामी मेरे हाथ से निकले जा रहे है। उन पर विषय का भूत सवार हो गया है और कोई समझाने वाला नहीं। वह अपने होश मे नही है। मैं क्या करुं, अगर मैं चली जाती हूं तो थोडे ही दिनो में सारा ही घर मिट्टी में मिल जाएगा और इनका वही हाल होगा जो स्वार्थी मित्रो के चुंगल में फंसे हुए नौजवान रईसों का होता है। कोई कुलटा घर में आ जाएगी और इनका सर्वनाश कर देगी। ईश्वा ! मैं क्या करूं ? अगर इन्हें कोई बीमारी हो जाती तो क्या मैं उस दशा मे इन्हें छोडकर चली जाती ? कभी नही। मैं तन मन से इनकी सेवा-सुश्रूषा करती, ईश्वर से प्रार्थना करती, देवताओं की मनौतियां करती। माना इन्हें शारीरिक रोग नही है, लेकिन मानसिक रोग अवश्य है। आदमी रोने की जगह हंसे और हंसने की जगह रोये, उसके दीवाने होने में क्या संदेह है ! मेरे चले जाने से इनका सर्वनाश हो जायेगा। इन्हें बचाना मेरा धर्म है।
हां, मुझें अपना शोक भूल जाना होगा। रोऊंगी, रोना तो तकदीर में लिखा ही है—रोऊंगी, लेकिन हंस-हंस कर । अपने भाग्य से लडूंगी। जो जाते रहे उनके नाम के सिवा और कर ही क्या सकती हूं, लेकिन जो है उसे न जाने दूंगी। आ, ऐ टूटे हुए ह्रदय ! आज तेरे टुकडों को जमा करके एक समाधि बनाऊं और अपने शोक को उसके हवाले कर दूं। ओ रोने वाली आंखों, आओ, मेरे आसुंओं को अपनी विहंसित छटा में छिपा लो। आओ, मेरे आभूषणों, मैंने बहुत दिनों तक तुम्हारा अपमान किया है, मेरा अपराध क्षमा करो। तुम मेरे भले दिनो के साक्षी हो, तुमने मेरे साथ बहुत विहार किए है, अब इस संकट में मेरा साथ दो ; मगर देखो दगा न करना ; मेरे भेदों को छिपाए रखना।
पिछले पहर को पहफिल में सन्नाटा हो गया। हू-हा की आवाजें बंद हो गयी। लीला ने सोचा क्या लोग कही चले गये, या सो गये ? एकाएक सन्नाटा क्यों छा गया। जाकर दहलीज में खडी हो गयी और बैठक में झांककर देखा, सारी देह में एक ज्वाला-सी दौड गयी। मित्र लोग विदा हो गये थे। समाजियो का पता न था। केवल एक रमणी मसनद पर लेटी हुई थी और सीतासरन सामने झुका हुआ उससे बहुत धीरे-धीरे बातें कर रहा था। दोनों के चेहरों और आंखो से उनके मन के भाव साफ झलक रहे थे। एक की आंखों में अनुराग था, दूसरी की आंखो में कटाक्ष ! एक भोला-भोला ह्रदय एक मायाविनी रमणी के हाथों लुटा जाता था। लीला की सम्पत्ति को उसकी आंखों के सामने एक छलिनी चुराये जाती थी। लीला को ऐसा क्रोध आया कि इसी समय चलकर इस कुल्टा को आडे हाथों लूं, ऐसा दुत्कारूं वह भी याद करें, खडे-,खडे निकाल दूं। वह पत्नी भाव जो बहुत दिनो से सो रहा था, जाग उठा और विकल करने लगा। पर उसने जब्त किया। वेग में दौडती हुई तृष्णाएं अक्समात् न रोकी जा सकती थी। वह उलटे पांव भीतर लौट आयी और मन को शांत करके सोचने लगी—वह रूप रंग में, हाव-भाव में, नखरे-तिल्ले में उस दुष्टा की बराबरी नही कर सकती। बिलकुल चांद का टुकडा है, अंग-अंग में स्फूर्ति भरी हुई है, पोर-पोर में मद छलक रहा है। उसकी आंखों में कितनी तृष्णा है। तृष्णा नही, बल्कि ज्वाला ! लीला उसी वक्त आइने के सामने गयी । आज कई महीनो के बाद उसने आइने में अपनी सूरत देखी। उस मुख से एक आह निकल गयी। शोक न उसकी कायापलट कर दी थी। उस रमणी के सामने वह ऐसी लगती थी जैसे गुलाब के सामने जूही का फूल



सीतासरन का खुमार शाम को टूटा । आखें खुलीं तो सामने लीला को खडे मुस्करातेदेखा।उसकी अनोखी छवि आंखों में समा गई। ऐसे खुश हुए मानो बहुत दिनो के वियोग के बाद उससे भेंट हुई हो। उसे क्या मालूम था कि यह रुप भरने के लिए कितने आंसू बहाये है; कैशों मे यह फूल गूंथने के पहले आंखों में कितने मोती पिरोये है। उन्होनें एक नवीन प्रेमोत्साह से उठकर उसे गले लगा लिया और मुस्कराकर बोले—आज तो तुमने बडे-बडे शास्त्र सजा रखे है, कहां भागूं ?
लीला ने अपने ह्रदय की ओर उंगली दिखकर कहा –-यहा आ बैठो बहुत भागे फिरते हो, अब तुम्हें बांधकर रखूगीं । बाग की बहार का आनंद तो उठा चुके, अब इस अंधेरी कोठरी को भी देख लो।
सीतासरन ने जज्जित होकर कहा—उसे अंधेरी कोठरी मत कहो लीला वह प्रेम का मानसरोवर है !
इतने मे बाहर से किसी मित्र के आने की खबर आयी। सीताराम चलने लगे तो लीला ने हाथ उनका पकडकर हाथ कहा—मैं न जाने दूंगी।
सीतासरन-- अभी आता हूं।
लीला—मुझे डर है कहीं तुम चले न जाओ।
सीतासरन बाहर आये तो मित्र महाशय बोले –आज दिन भर सोते हो क्या ? बहुत खुश नजर आते हो। इस वक्त तो वहां चलने की ठहरी थी न ? तुम्हारी राह देख रही है।
सीतासरन—चलने को तैयार हूं, लेकिन लीला जाने नहीं देगीं।
मित्र—निरे गाउदी ही रहे। आ गए फिर बीवी के पंजे में ! फिर किस बिरते पर गरमाये थे ?
सीतासरन—लीला ने घर से निकाल दिया था, तब आश्रय ढूढता – फिरता था। अब उसने द्वार खोल दिये है और खडी बुला रही है।
मित्र—आज वह आनंद कहां ? घर को लाख सजाओ तो क्या बाग हो जायेगा ?
सीतासरन—भई, घर बाग नही हो सकता, पर स्वर्ग हो सकता है। मुझे इस वक्त अपनी क्षद्रता पर जितनी लज्जा आ रही है, वह मैं ही जानता हूं। जिस संतान शोक में उसने अपने शरीर को घुला डाला और अपने रूप-लावण्य को मिटा दिया उसी शोक को केवल मेरा एक इशारा पाकर उसने भुला दिया। ऐसा भुला दिया मानो कभी शोक हुआ ही नही ! मैं जानता हूं वह बडे से बडे कष्ट सह सकती है। मेरी रक्षा उसके लिए आवश्यक है। जब अपनी उदासीनता के कारण उसने मेरी दशा बिगडते देखी तो अपना सारा शोक भूल गयी। आज मैंने उसे अपने आभूषण पहनकर मुस्कराते हुंए देखा तो मेरी आत्मा पुलकित हो उठी । मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि वह स्वर्ग की देवी है और केवल मुझ जैसे दुर्बल प्राणी की रक्षा करने भेजी गयी है। मैने उसे कठोर शब्द कहे, वे अगर अपनी सारी सम्पत्ति बेचकर भी मिल सकते, तो लौटा लेता। लीला वास्तव में स्वर्ग की देवी है!

लेखक : मुंशी प्रेमचंद

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दैनिक साहित्य ई-पत्रिका: स्वर्ग की देवी.../ मुंशी प्रेमचंद
स्वर्ग की देवी.../ मुंशी प्रेमचंद
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दैनिक साहित्य ई-पत्रिका
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