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बेटी का धन.../ मुंशी प्रेमचंद

बेटी का धन बेतवा नदी दो कगारों के बीच इस तरह मुँह छिपाए हुई थी,जैसे निर्मल हृदयों में सरस और उत्साह की मध्यम ज्योति छिपी रहती है...

बेटी का धन

बेतवा नदी दो कगारों के बीच इस तरह मुँह छिपाए हुई थी,जैसे निर्मल हृदयों में सरस और उत्साह की मध्यम ज्योति छिपी रहती है। इसके एक कगार पर एक छोटा-सा गाँव बसा है, जो अपने भग्न जातीय चिह्नों के लिए बहुत ही प्रसिद्ध है। जातीय गाथाओं और चिह्नों पर मर मिटने वाले लोग इस भग्न स्थान पर बड़े प्रेम और श्र्द्धा के साथ आते और गाँव का बूढ़ा केवल सुक्खू चौधरी उन्हें उसकी परिक्रमा कराता और रानी के महल, राजा का दरबार और कुँवर के बैठके के मिटे हुए चिह्नों को दिखाता। वह एक उच्छवास लेकर रुँधे हुए गले से कहता—‘महाशय’! एक वह समय था कि केवटों को मछलियों के इनाम में अशर्फियाँ मिलती थीं। कहार महल में झाड़ू देते हुए अशर्फियाँ बटोर ले सकते थे। वेतवा नदी रोज बढ़कर महाराज के चरण छूने आती थी। यह प्रताप और यह तेज था, परन्तु आज इसकी यह दशा है।’ इन सुन्दर उक्तियों पर किसी का विश्वास जमाना चौधरी के वश की बात न थी, पर सुनने वाले उसकी सहृदयता तथा अनुराग के जरूर कायल हो जाते थे।

सुक्खू चौधरी उदार पुरुष थे, परन्तु जितना बड़ा मुँह था, उतना बड़ा ग्रास न था। तीन लड़के, तीन बहुएँ और कई पौत्र-पौत्रियाँ थीं। लड़की केवल एक गंगाजली थी, जिसका अभी तक गौना नहीं हुआ था। चौधरी की यह सबसे पिछली संतान थी। स्त्री के मर जाने पर उसने इसको बकरी का दूध पिला-पिलाकर पाला था। परिवार में खानेवाले तो इतने थे, पर खेती सिर्फ एक हल की होती थी। ज्यों-त्यों कर निर्वाह होता था, परन्तु सुक्खू की वृद्धावस्था और पुरातत्व-ज्ञान ने उसे गाँव में वह मान प्रतिष्ठा प्रदान कर रक्खी थी, जिसे देखकर झगड़ू साहू भीतर-ही-भीतर जलते थे। सुक्खू जब गाँववालों के समक्ष हाकिमों से हाथ फेंक-फेंककर बातें करने लगता और खंडहरों को घुमा-फिराकर दिखाने लगता था,तो झगड़ू साहू, जो चपरासियों के धक्के खाने के डर से करीब नहीं फटकते थे, तड़प-तड़प कर रह जाते थे। अतः वे सदा उस शुभ अवसर की प्रतीक्षा करते रहते थे, जब सुक्खू पर अपने धन द्वारा प्रभुत्व जमा सकें।

2


इस गाँव के जमींदार ठाकुर जीतनसिंह थे, जिनकी बेगार के मारे गाँववालों के नाकों में दम था। उस साल जब जिला मजिस्ट्रेट का दौरा हुआ और वह यहाँ के पुरातन चिह्नों की सैर करने के लिए पधारे, तो सुक्खू चौधरी ने दबी जबान से अपने गाँववालों की दुःख कहानी उन्हें सुनायी। हाकिमों से वार्त्तालाप करने में उसे तनिक भी भय न होता था। सुक्खू चौधरी को खूब मालूम था कि जीतनसिंह से रार मचाना सिंह के मुँह में सिर देना है। किन्तु जब गाँववाले कहते थे कि चौधरी तुम्हारी यह मित्रता किस दिन काम आएगी ! ‘परोपकाराय सताम् विभूतयः!’ तब सुक्खू का मिजाज आसमान पर चढ़ जाता था। घड़ी-भर के लिए वह जीतनसिंह को भूल जाता था। मजिस्ट्रेट ने जीतनसिंह से इसका उत्तर माँगा। उधर झगड़ू साहू ने चौधरी के इस साहसपूर्ण स्वामी-द्रोह की रिपोर्ट जीतनसिंह को दी। ठाकुर साहब जलकर आग हो गए। अपने कारिंदे से बकाया लगान का बही माँगी। संयोगवश चौधरी के जिम्मे इस साल का कुछ लगान बाकी था। कुछ तो पैदावार कम हुई, उस पर गंगाजली का ब्याह करना पड़ा। छोटी बहू नथ की रट लगाए हुए थी, वह बनवानी पड़ी। इन सब खर्चों ने हाथ बिलकुल खाली कर दिया था। लगान के लिए कुछ अधिक चिन्ता नहीं थी। वह इस अभिमान में भूला हुआ था कि जिस जबान में हाकिमों को प्रसन्न करने की शक्ति है। क्या वह ठाकुर को अपना लक्ष्य न बना सकेगी ? बूढ़े चौधरी इधर तो अपने गर्व में निश्चिन्त थे और उधर उन पर बकाया लगान की नालिश ठुक गई सम्मन आ पहुँचा। दूसरे दिन पेशी की तारीख पड़ गई चौधरी को अपना जादू चलाने का अवसर न मिला।

जिन लोगों के बढ़ावे में आकर सुक्खू ने ठाकुर से छेड़छाड़ की थी, उनका दर्शन मिलना दुर्लभ हो गया। ठाकुर साहब के सहने और प्यादे गाँव में चील की तरह मँडराने लगे। उनके भय से किसी को चौधरी की परछाईं काटने का साहस न होता था। कचहरी यहाँ से तीन मील पर थी। बरसात के दिन, रास्ते में ठौर-ठौर पानी और उमड़ी हुई नदियाँ, रास्ता कच्चा, बैलगाड़ी का निबाह नहीं, पैरों में बल नहीं, अतः अदमपैरवी में मुकदमा एकतरफा फैसला हो गया।

3


कुर्की का नोटिस पहुँचा, तो चौधरी के हाथ-पाँव फूल गए। सारी चतुराई भूल गई। चुपचाप अपनी खाट पर पड़ा-पड़ा नदी की ओर ताकता और मन में कहता—क्या मेरे जीते ही जी घर मिट्टी में मिल जाएगा ? मेरे इन बैलों की सुन्दर जोड़ी के गले में आह ! क्या दूसरों का जुआ पड़ेगा ? यह सोचते-सोचते उसकी आँख भर आती। वह बैलों से लिपट कर रोने लगता, परन्तु बैलों की आँखों में क्यों आँसू जारी थे ! वे नाँद में मुँह क्यों नहीं डालते ! क्या उनके हृदयपर भी अपने स्वामी के दुःख की चोट पहुँच रही थी ?

फिर वह अपने झोंपड़े को विकल नयनों से निहारकर देखता और मन में सोचता—क्या हमको इस घर से निकलना पड़ेगा ? यह पूर्वजों की निशानी क्या हमारे जीते-जी छिन जाएगी ?

कुछ लोग परीक्षा में दृढ़ रहते हैं और कुछ लोग इसकी हलकी सी आँच भी नहीं सह सकते। चौधरी अपनी खाट पर उदास पड़े-पड़े घंटों अपने कुलदेव महावीर और महादेव को मनाया करता और उनका गुणगान गाया करता। उसकी चिन्ता दग्ध आत्मा को और कोई सहारा न था। इसमें कोई संदेह न था कि चौधरी की तीन बहुओं के पास गहने थे, पर स्त्री का गहना ऊख का रस है, जो पेरने से ही निकलता है। चौधरी जाति का ओछा पर स्वभाव का ऊंचा था। उसे ऐसी नीच बात बहुओं से कहते संकोच होता था ! कदाचित् यह नीच विचार उसके हृदय में उत्पन्न ही नहीं हुआ था, किन्तु तीनों बेटे यदि जरा भी बुद्धि से काम लेते, तो बूढ़े को देवताओं की शरण लेने की आवश्यकता न होती। परन्तु यहाँ तो बात ही निराली थी। बड़े लड़के को घाट के काम से फुरसत न थी। बाकी दो लड़के इस जटिल प्रश्न को विचित्र रूप से हल करने के मंसूबे बाँध रहे थे।

मझले झींगुर ने मुँह बनाकर कहा—ऊँह ! इस गाँव में क्या धरा है। जहाँ भी कमाऊंगा, वही खाऊँगा। पर जीतनसिंह की मूँछे एक-एक करके चुन लूँगा।

छोटे फक्कड़ ऐंठकर बोले—मूँछे तुम चुन लेना। नाक मैं उड़ा दूँगा। नककटा बना घूमेगा।

इस पर दोनों खूब हँसे और मछली मारने चल दिये।

इस गाँव में एक बूढ़े ब्राह्मण भी रहते थे। मन्दिर में पूजा करते और नित्य अपने यजमानों को दर्शन देने नदी पार जाते, पर खेवे के पैसे न देते। तीसरे दिन वह जमींदार के गुप्तचरों की आँख बचाकर सुक्खू के पास आये और सहानुभूति के स्वर में बोले— चौधरी ! कल ही तक मियाद है और तुम अभी तक पड़े-पड़े सो रहे हो। क्यों नहीं घर की चीज-वस्तु ढूँढ़-ढाँढ़कर किसी और जगह भेज देते ? न हो समधियाने पठवा दो। जो कुछ बचा रहे, वही सही। घर की मिट्टी खोदकर थोड़े ही कोई ले जाएगा।

चौधरी लेटा था, उठ बैठा और आकाश की ओर निहारकर बोला—जो कुछ उसकी इच्छा है, होगा। मुझसे यह जाल न होगा।

इधर कई दिन की निरंतर भक्ति उपासना के कारण चौधरी का मन शुद्ध और पवित्र हो गया था। उसे छल-प्रपंच से घृणा उत्पन्न हो गयी थी। पंडित जी इस काम में सिद्धहस्त थे, लज्जित हो गए।

परन्तु चौधरी के घर के अन्य लोगों को ईश्वरेच्छा पर इतना भरोसा न था। धीरे-धीरे घर के बर्तन-भाड़े खिसकाये जाते थे। अनाज का एक दाना भी घर में न रहने पाया। रात को नाव लदी हुई जाती और उधर से खाली लौटती थी। तीन दिन तक घर में चूल्हा न जला। बूढ़े चौधरी के मुँह में अन्न की कौन कहे, पानी की एक बूंद भी न पड़ी। स्त्रियाँ भाड़ से चने भुनाकर चबातीं और लड़के मछलियाँ भून-भूनकर उड़ाते; परन्तु बूढ़े की इस एकादशी में यदि कोई शरीक था तो वह उसकी बेटी गंगा जली थी। वह बेचारी अपने बूढ़े बाप को चारपाई पर निर्जल छटपटाते देख, बिलख-बिलख कर रोती।

लड़कों को अपने माता-पिता से वह प्रेम नहीं होता, जो लड़कियों को होता है। गंगाजली इस सोच-विचार में मग्न रहती कि दादा की किस भाँति सहायता करूँ। यदि हम सब भाई-बहन मिलकर जीतनसिंह के पास जाकर दया-भिक्षा की प्रार्थना करें, तो वे अवश्य मान जायँगे; परन्तु दादा को कब यह स्वीकार होगा ? वह यदि एक बड़े साहब के पास चले जायँ तो सब कुछ बात-की-बात में बन जाए। किन्तु उनकी तो जैसे बुद्धि मारी गई है। इसी उधेड़बुन में उसे एक उपाय सूझ पड़ा, कुम्हलाया हुआ मुखारविंद खिल उठा।

पुजारी जी सुक्खू चौधरी के पास से उठकर चले गये थे और चौधरी उच्च स्वर से अपने सोए देवताओं को पुकार-पुकार बुला रहे थे। निदान गंगाजली उनके पास जाकर खड़ी हो गई। चौधरी ने उसे देखकर विस्मित स्वर में पूछा- क्यों बेटी ! इतनी रात गए क्यों बाहर आयी !

गंगाजली ने कहा—बाहर रहना तो भाग्य में लिखा है, घर में कैसे रहूँ ! सुक्खू ने जोर की हाँक लगायी—कहाँ गए तुम कृष्ण मुरारी, मेरे दुःख हरो। गंगाजली खड़ी थी, बैठ गई और धीरे से बोली— भजन गाते तो आज तीन दिन हो गए। घर बचाने का कुछ उपाय सोचा कि इसे यों ही मिट्टी में मिला दोगे? हम लोगों को क्या पेड़-तले रखोगे ?

चौधरी ने व्यथित स्वर से कहा— बेटी मुझे तो कोई उपाय नहीं सूझता। भगवान् जो चाहेंगे, होगा वेग चलो गिरधर गोपाल, काहे विलंब करो।

गंगाजली ने कहा— मैंने एक उपाय सोचा है, कहो तो कहूं।

चौधरी उठकर बैठ गए और पूछा— कौन उपाय है बेटी ?

गंगाजली ने कहा— मेरे गहने झगड़ू साहू के यहाँ गिरों रख दो। मैंने जोड़ लिया है। देने भर के रुपये हो जाएँगे।
चौधरी ने ठंडी साँस लेकर कहा—बेटी ! तुमको मुझसे यह कहते लाज नहीं आती ? वेद-शास्त्र में मुझे तुम्हारे गाँव के कुएँ का पानी पीना भी मना है। तुम्हारी ड्योढ़ी में पैर रखने का निषेध है। क्या तुम मुझे नरक में ढकेलना चाहती हो ?

गंगाजली उत्तर के लिए पहले ही से तैयार थी, बोली— मैं अपने गहने तुम्हें दिये थोड़े ही देती हूँ। इस समय लेकर काम चलाओ, चैत में छुड़ा देना।

चौधरी ने कड़ककर कहा— यह मुझसे न होगा।

गंगाजली उत्तेजित होकर बोली—तुमसे यह न होगा, तो मैं आप ही जाऊँगी मुझसे घर की यह दुर्दशा नहीं देखी जाती।

चौधरी ने झुँझलाकर कहा— बिरादरी को कौन मुँह दिखाऊँगा ?

गंगाजली ने चिढ़कर कहा— बिरादरी में कौन ढिंढोरा पीटने जाता है ?

चौधरी ने फैसला सुनाया—जग हँसाई के लिए मैं अपना धर्म न बिगाड़ूँगा। गंगाजली बिगड़कर बोली— मेरी बात नहीं मानोगे तो तुम्हारे ऊपर मेरी हत्या पड़ेगी। मैं आज ही बेतवा नदी में कूद पड़ूंगी। तुमसे चाहे घर में आग लगाते देखा जाय, पर मुझसे न देखा जाएगा।

चौधरी ने ठंडी साँस लेकर कातर स्वर में कहा— बेटी, मेरा धर्म नाश मत करो। यदि ऐसा ही है, तो अपनी किसी भावज के गहने माँगकर लाओ।

गंगाजली ने गंभीर भाव से कहा भावजों से कौन अपना मुँह नुचवाने जाएगा ? उनको फिकर होती, तो क्या मुँह में दही जमा था, कहती नहीं ?

चौधरी निरुत्तर हो गए। गंगाजली घर में जाकर गहनों की पिटारी लायी और एक-एक करके सब गहने चौधरी के अँगोछे में बाँध दिये। चौधरी ने आंख में आंसू भरकर कहा—हाय राम ! इस शरीर की क्या गति लिखी है। यह कह कर उठे। बहुत सम्हालने पर भी आँखों में आँसू न छिपे।

4


रात का समय था। बेतवा नदी के किनारे-किनारे मार्ग को छोड़कर सुक्खू चौधरी गहनों की गठरी काँख में दबाए इस तरह चुपके-चुपके चल रहे थे, मानों पाप की गठरी लिये जाते हैं। जब वह झगड़ू साहू के मकान के पास पहुंचे, तो ठहर गए आँखें खूब साफ कीं जिसमें किसी को यह बोध न हो कि चौधरी रोता था।

झगड़ू साहू धागे की कमानी की एक मोटी ऐनक लगाए, बही-खाता फैलाए हुक्का पी रहे थे और दीपक के धुँले प्रकाश में उन अक्षरों के पढ़ने की व्यर्थ चेष्टा में लगे थे, जिनमें स्याही की बहुत किफायत की गई थी। बार-बार ऐनक को साफ करते और आँख मलते, पर चिराग की बत्ती उकसाना या दोहरी बत्ती लगाना शायद इसलिए उचित नहीं समझते थे कि तेल का अपव्यय होगा। इसी समय सुक्खू चौधरी ने आकर कहा—जै रामजी !

झगड़ू साहू ने देखा। पहचान कर बोलेजय राम चौधरी ! कहो, मुकदमें में क्या हुआ ? यह लेन-देन बड़े झंझट का काम है। दिन-भर सिर उठाये छुट्टी नहीं मिलती।

चौधरी ने पोटली को खूब सावधानी से छिपाकर लापरवाही के साथ कहा—अभी तक तो कुछ नहीं हुआ। कल इजराय डिगरी होनेवाली है। ठाकुर साहब ने न जाने कब का बैर निकाला है। हमको दो-तीन दिन की भी मुहलत होती, तो डिगरी न जारी होने पाती। छोटे साहब और बड़े साहब दोनों हमको अच्छी तरह जानते हैं। अभी इसी साल मैंने उनसे नदी-किनारे घंटों बातें कीं, किंतु एक तो बरसात के दिन, दूसरे एक दिन की भी मुहलत नहीं, क्या करता। इस समय मुझे रुपयों की चिंता है।

झगड़ू साहू ने विस्मित होकर पूछा— ‘तुमको रुपयों की चिंता ! घर में भरा है, वह किस दिन काम आवेगा।’ झगड़ू साहू ने यह व्यंग्यबाण नहीं छोड़ा था। वास्तव में उन्हें और सारे गाँव को विश्वास था कि चौधरी के घर में लक्ष्मी महारानी का अखंड राज्य है।

चौधरी का रंग बदलने लगा। बोले— साहूजी ! रुपया होता तो किस बात की चिंता थी ? तुमसे कौन छिपावे ? आज तीन दिन से घर में चूल्हा नहीं जला, रोना-पीटना पड़ा है। अब तो तुम्हारे बसाए बसूँगा। ठाकुर साहब ने तो उजाड़ने में कोई कसर न छोड़ी।

झगड़ू साहू जीतनसिंह को खुश रखना जरूर चाहते थे, पर साथ ही चौधरी को भी नाखुश करना मंजूर न था। यदि सूद-दर-सूद जोड़कर मूल तथा ब्याज सहज में वसूल हो जाय, तो उन्हें चौधरी पर मुफ्त का अहसान लादने में कोई आपत्ति न थी। यदि चौधरी के अफसरों की जान-पहचान के कारण साहूजी का टैक्स से गला छुट जाय, जो अनेकों उपाय करने, अहलकारों की मुट्ठी गरम करने पर भी नित्य प्रति उनकी तोंद की तरह बढ़ता ही जा रहा था, तो क्या पूछना ! बोले— क्या कहें चौधरीजी, खर्च के मारे आजकल हम भी तबाह हैं। लेहने वसूल नहीं होते। टैक्स का रुपया देना पड़ा। हाथ बिलकुल खाली हो गया। तुम्हें कितना रुपया चाहिए?

चौधरी ने कहा— सौ रुपये कि डिगरी है। खर्च-वर्च मिलाकर दो सौ के लगभग समझो।

चौधरी अब अपने दाँव खेलने लगे। पूछा— तुम्हारे लड़कों ने तुम्हारी कुछ भी मदद न की। वह सब भी तो कुछ-न-कुछ कमाते हैं ?

साहूजी का यह निशाना ठीक पड़ा। लड़कों की लापरवाही से चौधरी के मन में जो कुत्सित भाव भरे थे, वह सजीव हो गए। बोला— भाई, लड़के किसी काम के होते तो यह दिन ही क्यों देखना पड़ता ? उन्हें तो अपने भोग-विलास से मतलब। घर-गृहस्थी का बोझ मेरे सिर पर है। मैं इसे जैसे चाहूँ संभालू। उनसे कुछ सरोकार नहीं, मरते दम भी गला नहीं छूटता। मरूंगा तो सब खाल में भूसा भराकर रख छोड़ेंगे। गृह कारज नाना जंजाला।

झगड़ू ने दूसरा तीर मारा—क्या बहुओं से भी कुछ न बन पड़ा ?

चौधरी ने उत्तर दिया—बहू-बेटे सब अपनी-अपनी मौज में मस्त हैं। मैं तीन दिन तक द्वार पर बिना अन्न-जल के पड़ा था, किसी ने बात तक भी नहीं पूछी। कहाँ की सलाह, कहाँ की बातचीत। बहुओं के पास रुपये नहीं, पर गहने तो वे भी मेरे बनवाए हुए। दुर्दिन के समय यदि दो-दो थान उतार देतीं, तो क्या मैं छुड़ा न देता ? सदा यही दिन थोड़े ही रहेंगे।

झगड़ू समझ गए कि यह महज जबान का सौदा है और वह जबान का सौदा भूल कर भी न करते थे। बोले—तुम्हारे घर के लोग भी अनूठे हैं। क्या इतना भी नहीं जानते कि बूढ़ा रुपये कहां से लाएगा ? अब समय बदल गया। या तो कुछ जायदाद लिखो या गहने गिरों रखो, तब जाकर कहीं रुपया मिले। इसके बिना रुपये कहाँ ? इसमें भी जायदाद में सैकड़ों बखेड़े पड़े हैं। सुभीता गिरों रखने में ही है। हाँ, तो जब घरवालों को इसकी कोई फिक्र नहीं, तो तुम क्यों व्यर्थ जान देते हो यही न होगा कि लोग हँसेंगे। यह लाज कहाँ तक निबाहोगे ?

चौधरी ने अत्यंत विनीत होकर कहा—साहजी, यह लाज तो मारे डालती है। तुमसे क्या छिपा है ? एक दिन था कि हमारे दादा-बाबा महाराज की सवारी के साथ चलते थे और अब एक दिन यह है कि घर की दीवार तक बिकने की नौबत आ गई है। कहीं मुंह दिखाने को भी जी नहीं चाहता। यह लो गहनों की पोटली। यदि लोकलाज न होती, तो इसे लेकर कभी यहाँ न आता। परन्तु यह अधर्म इसी लाज के निबाहने के कारण करना पड़ा है।

झगड़ू साहू ने आश्चर्य में होकर पूछा—यह गहने किसके हैं ?

चौधरी ने सिर झुकाककर बड़ी कठिनता से कहा— मेरी बेटी गंगाजली के।

झगड़ी साहू विस्मित हो गए। बोले— अरे ! राम-राम !

चौधरी ने कातर स्वर में कहा—डूब मरने को जी चाहता है।

झगड़ू ने बड़ी धार्मिकता के साथ स्थिर होकर कहा— शास्त्र में बेटी के गाँव का पेड़ देखना मना है।

चौधरी ने दीर्घ निःश्वास छोड़कर करुणस्वर में कहा— न जाने नारायण कब मौत देंगे। भाईजी ! तीन लड़कियाँ ब्याहीं। कभी भूलकर भी उनके द्वार का मुँह नहीं देखा। परमात्मा ने अब तक तो टेक निबाही है, पर अब न जाने मिट्टी की क्या दुर्दशा होने वाली है।

झगड़ू साहू ‘लेखा जौ-जौ, बखशीस सौ-सौ’ के सिद्धांत पर चलते थे। सूद की एक कौड़ी भी छोड़ना उनके लिए हराम था। यदि महीने का एक दिन भी लग जाता, तो पूरे महीने का सूद वसूल कर लेते। परंतु नवरात्र में नित्य दुर्गापाठ करवाते थे। पितृपक्ष में रोज ब्राह्मणों को सीधा बाँटते थे। बनियों की धर्म में बड़ी निष्ठा होती है। झगड़ू साहू के द्वार पर साल में एक बार भागवत पाठ अवश्य होता। यदि कोई दीन ब्राह्मण लड़की ब्याहने के लिए उनके सामने हाथ पसारता तो वह खाली हाथ न लौटता, भीख माँगने वाले ब्राह्मणों को, चाहे वह कितने ही संडे-मुसंडे हों, उनके दरवाजे पर फटकार नहीं सुननी पड़ती थी। उनके धर्मशास्त्र में कन्या के गाँव के कुए का पानी पीने से प्यासा मर जाना अच्छा था। वह स्वयं इस सिद्धांत के भक्त थे और इस सिद्धांत के अन्य पक्ष-पाती उनके लिए महामान्य देवता था। वे पिघल गए;मन में सोचा, यह मनुष्य तो कभी ओछे विचारों को मन में नहीं लाया निर्दय काल की ठोकर से अधर्म मार्ग पर उतर आया है, तो उसके धर्म की रक्षा करना हमारा कर्तव्य, धर्म है। यह विचार मन में आते ही झगड़ू साहू गद्दी से मनसद के सहारे उठ बैठे और दृढ़ स्वर से कहा—वही परमात्मा जिसने अब तक तुम्हारी टेक निबाही है, अब भी निबाहेगा। लड़की के गहने लड़की को दे दो। लड़की जैसी तुम्हारी है, वैसी ही मेरी भी है। यह लो रुपये, आज काम चलाओ। जब हाथ आ जायँ, दे देना।

चौधरी पर इस सहानुभूति का गहरा असर पड़ा। वह जोर-जोर से रोने लगा। उसे अपने भावों की धुन में कृष्ण भगवान् की मोहिनी मूर्ति सामने विराजमान दिखाई दी। वही झगड़ू जो सारे गाँव में बदनाम था, जिसकी खुद कई बार हाकिमों से शिकायत की थी, आज साक्षात् देवता जान पड़ता था। रुँधे हुए कंठ से गद्गद हो बोला— झगड़ू ! तुमने इस समय मेरी बात, मेरी लाज, मेरा धर्म, कहाँ तक कहूँ, मेरा सब-कुछ रख लिया। मेरी डूबती नवा पार लगा दी। कृष्ण मुरारी तुम्हारे इस उपकार का फल देंगे और मैं तो तुम्हारा गुण जब तक जीऊँगा, गाता रहूँगा।

लेखक : मुंशी प्रेमचंद

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अज्ञेय,14,अनाथ लड़की,1,अनुपमा का प्रेम,1,अनुभव,1,अनुराधा,1,अनुरोध,1,अपना गान,1,अपनी करनी,1,अभागी का स्वर्ग,1,अमृत,1,अमृता प्रीतम,8,अलग्योझा,1,अविनाश ब्यौहार,4,अशआर,1,अश्वघोष,6,आख़िरी तोहफ़ा,1,आखिरी मंजिल,1,आत्म-संगीत,1,आर्यन मिश्र,2,इज्ज़त का ख़ून,1,उद्धार,1,उपन्यास,48,कफ़न,1,कबीरदास,2,कबीरदास जी के दोहे,3,कर्मों का फल,1,कवच,1,कविता,60,कविता कैसे लिखते है,1,कविता लिखने के नियम,1,कहानी,130,क़ातिल,1,कुंडलिया छंद,6,क्योंकर मुझे भुलाओगे,1,क्रान्ति-पथे,1,ग़ज़ल,108,ग़ज़ल की 32 बहर,3,गजलें,1,ग़रीब की हाय,1,गिरधर कविराय,5,गिरधर की कुंडलिया,4,गिरधर की कुंडलिया छंद,1,गीत,9,गीतिका,1,गुस्ताख हिन्दुस्तानी,8,गोपालदास "नीरज",14,गोपासदास "नीरज",1,गोस्वामी तुलसीदास,1,गोस्वामी तुलसीदास जी,1,गोस्वामी तुलसीदास जी के दोहे,2,घमण्ड का पुतला,1,घर जमाई,1,घासवाली,1,चंदबरदाई,3,छंद,25,छंद के नियम,1,छंद क्या है,1,छंदमुक्त कविता कैसे लिखें,1,जयशंकर प्रसाद,4,जानभी चौधुरी,2,जीतेन्द्र मीना 'गुरदह',2,जॉन एलिया,16,जौन एलिया,1,ज्वालामुखी,1,ठाकुर का कुआँ,1,डॉ. शिवम् तिवारी,1,डॉ.सिराज,1,तुम और मैं,1,तुलसीदास जी के दोहे,1,तोमर छंद,1,तोमर छंद के नियम,1,तोमर छंद कैसे लिखते है,1,त्रिया-चरित्र,1,दण्ड,1,दिल की रानी,1,दिलीप वर्मा'मीर',1,दीपावली का एक दीप,1,दुर्गा का मन्दिर,1,दुष्यंत कुमार,12,दूसरी शादी,1,देवधर की स्मृतियाँ,1,देवी- एक लघु कथा,1,दैनिक साहित्य,4,दो बैलों की कथा,1,दो सखियाँ,1,दोहा,12,दोहा छंद,6,दोहा छन्द,1,दोहा छन्द की परिभाषा,1,दोहा छन्द की पहचान?,1,नज़्म,7,नमक का दारोगा,1,नवगीत,1,नहीं तेरे चरणों में,1,नाग-पूजा,1,निदा फ़ाज़ली,26,निधि छंद के नियम,1,निधि छंद कैसे लिखते है,1,निमन्त्रण,1,निर्मला,21,निर्वासन,1,नैराश्य लीला,1,पंच परमेश्वर,1,पराजय-गान,1,परिणीता,1,पर्वत यात्रा,1,पहले भी मैं इसी राह से जा कर फिर,1,पुस्तक लोकार्पण,2,पूस की रात,1,प्रतापचन्द और कमलाचरण,1,प्रतीक मिश्रा "निरन्तर",1,प्रस्थान,1,प्रातः कुमुदिनी,1,फ़ैज़ अहमद फ़ैज़,15,बड़े घर की बेटी,1,बत्ती और शिखा,1,बन्द दरवाजा,1,बलिदान,1,बशीर बद्र,1,बहर क्या है?,1,बालकों का चोर,1,बाल्य-स्मृति,1,बूढ़ी काकी,1,भग्नदूत,4,मंझली दीदी,1,मंत्र,1,मनोरम छंद,1,मनोरम छंद कैसे लिखते है?मनोरम छंद क्वे नियम,1,मनोरमगा छंद के नियम,1,मनोरमगा छंद कैसे लिखते है?,1,मन्दिर,1,महातीर्थ,1,महादेवी वर्मा,5,मात्रा गणना कैसे करते है,1,मात्रिक अर्द्धसम छन्द,1,मात्रिक छंद के प्रकार,1,मात्रिक छंद क्या है,1,मिर्ज़ा ग़ालिब,1,मिलाप,1,मिस पद्मा,1,मीनू पंत त्रिपाठी,2,मुंशी प्रेमचंद,126,मुक्तक के नियम?,1,मुक्तक कैसे लिखते है?,1,मुक्तक क्या है?,1,मुहम्मद आसिफ अली,1,मैकू,1,मोटर के छींटे,1,यह मेरी मातृभूमि है,1,रसखान,2,रहस्य,1,राज किशोर मिश्र,1,राजहठ,1,राधिका छंद के नियम,1,राधिका छंद कैसे लिखते है,1,राम जी तिवारी"राम",1,राहत इंदौरी,21,लैला,1,वासना की कडियॉँ,1,विजय,1,विलासी,1,विष्णुपद छंद,1,विष्णुपद छंद कैसे लिखते है?,1,वेदी तेरी पर माँ,1,वैधविक,3,शंखनाद,1,शरतचंद्र चट्टोपाध्याय,32,शराब की दुकान,1,शायरी,2,शास्त्र छंद कैसे लिखते है,1,शास्त्र छंद.शास्त्र छंद के नियम,1,श्रीकान्त,20,श्रृंगार छंद के नियम,1,श्रृंगार छंद कैसे लिखते है?,1,संजय चतुर्वेदी,6,संत कबीरदास,1,संस्मरण,1,सच्चाई का उपहार,1,सती,1,सनातन,1,समर यात्रा,1,सम्भाव्य,1,सरिता कुमारी ‘क़लम’,1,सवैया छंद,2,सागर त्रिपाठी,1,सारी दुनिया के लिए,1,सार्द्धसरस छंद के नियम,1,सार्द्धसरस छंद कैसे लिखते है?,1,साहित्य अकादमी,4,साहित्य ज्ञान,22,साहित्यिक खबरें,5,सुभद्रा कुमारी चौहान,6,सुलक्षण छंद,1,सुलक्षण छंद के नियम,1,सुलक्षण छंद कैसे लिखते है?,1,सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,4,सैलानी बन्दर,1,सोहाग का शव,1,सौत,1,स्वर्ग की देवी,1,हम क्या शीश नवाएँ,1,हम लड़कियां है,1,हरिचरण,1,हस्तीमल "हस्ती",1,हस्तीमल हस्ती के दोहे,1,होली की छुट्टी,1,होशियार सिंह ‘शंबर’,1,होशियार सिंह ‘शंबर’ के दोहे,1,Ghazal Ki Matra Aur Bahar,1,Hindi Me Kavita Kaise Likhe,1,How to Write Hindi Poem,1,Kavita Likhna Seekhe,1,manoram chhand,1,Radhika Chhand Kaise Likhte Hai,1,Vishnupad Chhand Kaise Likhate Hai,1,
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दैनिक साहित्य पत्रिका: बेटी का धन.../ मुंशी प्रेमचंद
बेटी का धन.../ मुंशी प्रेमचंद
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